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________________ प्राचारांग सूत्र - स्थान मिलने के बाद, उस मकान में दूसरे श्रमण ब्राह्मण श्रादि पहिले से ठहरे हों, उनके पात्र आदि वस्तुएँ इधर-उधर न करे; वे ऊंघते हों तो न जगावे । संक्षेप में, उनको दुःखकारक या प्रतिकूल हो, ऐसा न करे। [१५६] ___वहां अपने समान धर्मी या सहभोजी सदाचारी साधु भावें तो उनको अपना लाया हुअा अाहारपानी; पाट-पाटला बिछाने की वस्तुएँ श्रादि देने के लिये कहें; पर दूसरों के लाये हुए आहार-पानी आदि के लिये बहुत प्राग्रह न करे। [१५६-१५७] ____वहां गृहस्थ या उनके पुत्र प्रादि के पास से सूई, उस्तरा, कान-सली या नेरनी श्रादि वस्तुएँ वापिस लौटाने का वचन देकर अपने लिये ही मांग लाया हो तो उनको दूसरों को न दे; पर अपना काम पूरा होते ही उसे गृहस्थ के पास ले जावे, और अपने खुले हाथ में या जमीन पर रख कर, 'यह है, यह है, ऐसा कहे; खुद उसके हाथ में न दे। [१७] - किसी अमराई में ठहरा हो । और आम खाने की इच्छा हो जाय तो जीवजन्तु वाले श्राम, और जिसको काटकर, टुकड़े करके निर्जीव न किया हो, न ले । जो श्राम जीवजन्तु से रहित, चीरकर टुकड़े कर निर्जीव किया हुआ हो, उसको ले । गन्ने के खेत या लहसन के खेत में ठहरा हो तो भी ऐसा ही करे । [१६०] . भिक्षु उपरोक्त दोष टाल कर नीचे के सात नियमों में से एक नियम के अनुसार स्थान को प्राप्त करे । १. सराय आदि स्थान देखकर वह स्थान अपने योग्य है या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003238
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherJain Shwetambar Conference Mumbai
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size6 MB
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