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आचारांग सूत्र
भिक्षु, ऐसा समझकर कि वस्त्र नया नहीं है, दुर्गन्ध से भरा हुआ है; उसको सुगन्धी पदार्थ, उकाले या ठंडे या धोवे या साफ़ न करे । [ १४७ ]
गरम पानी से
भिक्षु को वस्त्र को धूप में सुखाने की जरूरत पड़े तो वह उनको गीली या जीवजन्तु वाली जमीन पर न डाले । इसी प्रकार उनको जमीन से ऊपर की वस्तुओं पर जो इधर-उधर हिलती हों, पर भी न डाले और कोट, भीत, शिला, ढेले, खम्भे, खाट, मंजिल या छत श्रादि जमीन से ऊपर भी या हिलने वाली जगह पर भी न डाले । परन्तु वस्त्र को एकान्त में ले जाकर वहाँ जली हुई जमीन आदि बिना जीवजन्तु के स्थान पर देख भालकर साफ करके डाले । [ १४८]
भिक्षु, ऐसे ही वस्त्र मांगे जिनको वह स्वीकार कर सकता हो और जैसे मिले वैसे ही पहिने । उनको धोवे या रंगे नहीं; और धोये हुये या रंगे हुए वस्त्र न पहिने; दूसरे गांव जाते हुए उनको कोई छीन लेगा, इस डर से न छिपावे, और ऐसे ही वस्त्र धारण करे जिनको छीनने का मन किसीका न हो। यह वस्त्र धारी भिक्षु का सम्पूर्ण श्राचार है।
गृहस्थ के घर जाते समय अपने वस्त्र साथ में लेकर ही जायेआवे | ऐसा ही शौच या स्वाध्याय करने जाते समय करे । परन्तु वर्षा आदि के समय वस्त्र साथ में लेकर न जावे - श्रावे । [ १४६ ]
कोई भिक्षु दूसरे गांव जाते समय, कुछ समय के लिये किसी भिक्षु से मांग कर वस्त्र ले श्रावे और फिर वापिस आने पर उस चत्र को उसके मालिक को देने लगे तो वह उसको वापिस न ले या लेकर दूसरे को न दे दे, या किसी का मांग कर न दे
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