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________________ 72 2-तओ परहा पं० तं० ओहि-नाण अरहा, मण-पज्जव-नाण-अरहा, केवल नाण-अरहा।" अर्थात्-1. अवधिज्ञानी जिन, 2. मन:पर्यवज्ञानी जिन, 3. केवलज्ञानी जिन (तीन प्रकार के जिन)। 1-अवधिज्ञानी अरहंत, मन.पर्यवज्ञानी अरहंत, केवलज्ञानी अरहंत । (तीन प्रकार के अरिहंत)। (1) इसका मतलब यह है कि जब तीर्थ कर पाता की कुक्षी में आते हैं तब पूर्वभव से अवधिज्ञान अपने साथ लाते हैं। इसलिये गर्भ में अवतार लेने के समय से लेकर दीक्षा लेने से पहले तक अवधि जिन और अवधि अरहंत कहलाते हैं । (2) दीक्षा लेने के समय उन्हें मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस लिए दीक्षा के प्रारम्भ से लेकर केवलज्ञान होने से पहले तक वे मन पर्यव जिन और मन: पर्यव अरह कहलाते हैं । (3) ज्ञान उत्पन्न होने से लेकर निर्वाण से पहले तक वे केवलो-जिन और केवली अरहंत कहलाते है। पाठक स्वयं समझ गये होंगे कि अवधि, मन:पर्यव और केवल ये तीनों विशेषण उन्हीं जिनों और अरिहंतों के लिए हैं जिन्हें जैनधर्म में तीर्थ कर कहा है। परन्तु कामदेव के ये विशेषण कदापि नहीं होते और न ही किसी ने ऐसे विशेषण कामदेव के बतलाये हैं। इस बात की निश्चय सच्चाई के लिये विक्रम संवत् 1120 में श्री अभयदेव सूरि द्वारा की गई टीका को यहां उद्धृत करते हैं । यथा ___ "तो जिणे इत्यादि सुगमा नवरं राग-द्वेष-मोहान जयन्तीति जिनाः सर्वज्ञाः उकाच राग पश्च तथा मोहो जिलोयेन जिनाह्यसौ : अस्त्री शस्त्रोक्षमालत्वादहननेवानुमीयते इति (स्थानांग सूत्र टीका)। अर्थात्-राग, द्वेष, मोह को जीतने वालों को जिन सर्वज्ञ कहा है। शाश्वती जिनप्रतिमाओं का शास्त्रों में जो वर्णन आया है, वहाँ तीर्थंकरों के शरीरों की ऊंचाई, पद्मासन, तथा उनके नामों का ही उल्लेख है। जिस स्थान पर जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं उस स्थान का नाम शास्त्रकारों ने सिद्धायतन कहा है और यह है भी यथार्थ क्योंकि मूर्तियां तीर्थंकरों और सिद्धों की हैं यहाँ द्रोपदी देवी के जिनपडिमा पूजन के प्रसंग में नमोत्थणं द्वारा उन तीर्थ करों और सिद्धों की ही उपासना स्तुति की है। कामदेव की नहीं की। क्योंकि नमुत्थुगं में तीर्थ कर और सिद्ध के गुणों का ही वर्णन है। चैत्य शब्द के अर्थ की चर्चा भी की जा चुकी है और यहाँ जिन शब्द के अर्थ का खुलासा भी कर दिया है । अतः दोनों शब्दों का अर्थ अरिहंत-तीर्थ कर ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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