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________________ 73 है । इसलिये जिन-चैत्य और जिनप्रतिमा का अर्थ अरिहंत-तीर्थ कर और सिद्ध को मूर्ति ही है। भीखन जी मतानुयायी तेरापंथी जयाचार्य ने द्रोपदी द्वारा प्रतिमा पूजन स्वीकार करके भी उसे मिथ्यादृष्टि कह कर पापाचरण कहा है जो कि अपने मिथ्या पक्ष की पुष्टि के निमित्त मनमाना विवेचन करने का दुःसाहस मात्र है। द्रोपदी देवी सम्यग्दृष्टि थी, आगम का मूल पाठ अर्थ सहित हम पहले लिख आये हैं। 2–देवलोक में उत्पन्न सरियाभ देव ने अपने निकाय में रहे हुए शाश्वत जिनबिम्बों की पूजा की-यथा तए णं स सरिया देवे चहि सामाणिय-साहस्सीहिं जाव अन्नेहि य बहि य सरियाभ जाव देहि य देवीहिं सद्धि सपरिवुडे सब्धिडढोए, जाव णा (वा) तियरवेणं जेणेव सिद्धाय तणे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छ इत्ता सिद्धायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अगपविसि इत्ता जेणेव देवच्छंदए जेनेव जिणपडिमायो तेणेव उबागच्छइ उवागच्छ इत्ता जिगपडिमाणं आलोए पणामं करेइ, करेइत्ता लोमहत्थगं गिण्हइ, गिण्ह. इत्ता जिणपडिमाणं लीमहत्थएण पमज्जइ, पमज्जित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणा गन्धोदएण व्हावेइ हावित्ता सुभिगन्धकासाइएण गायाई लहेत्ति, लूहिता जिणपडिमाण सरसेण गोसीसचन्दणेणं गायाइ अणुलिपईमण लिपइत्ता, प्रहयाई देवदूस-जुयलाई निय सेइ, नियंसित्ता पुप्फारोहण, मल्लारुहणं, गधारहण, चुण्णारहण', वन्नारुहण, वत्थारहण, आभरणारहण करेइ, करिता प्रास सोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलाव करेइ, मल्लदासकलावं करिता कयग्गहग हय करयल पब्भ विप्पमुक्केणं दसद्धवणेणं कुतुमेण मुक्कपुप्फ जोवयार क लय करेइ, करित्ता जिपडिमाणं पुरतो अच्छेहि, सण्हेडिं, रययामएहिं अच्छरसा तंदुलेहि अट्ठ मंगले आलिहइ, त जहा-सस्थिय जाव दप्पण तयाण तर यण चदप्पभरयण कंवइरवेरुलियविमलद डचणमणिरयण भत्तिचित्त कालागुरुपवर कुदुरुकधूवमघमतगंधुत्तमाण विद्धं च धूनवट्टि विणि यंत वेरुलियमय कडुच्छुयं पगहिय पयत्तण धूव दाऊ जिणवराण अदुसर्यासुद्धा थ. जुत्तहि अत्थजुत्तहिं अयुणरत्तोहि महावितहि सणइ सणित्ता सत्तट्टययाइ पच्चोसबकई पच्चोसक्कित्ता वामजाण अचेई अचेपत्ता दाहिण जाण धरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्राण धरणितलसिनिवाडे, निवाडे इत्ता इसि पच्चुगमइ, पच्चण्णमित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-नमोत्थुण अरिहंताण जाव संपत्ताण, वंदइ, नमसइ न सिता, जेगव दवच्छ दए जेनेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झ देस भाए तेनेव उवागच्छइ ।। अर्थ'-उसके बाद वह सरियाभ देव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत दूसरे भी अनेक सूरियाभ विमान में रहने वाले देव तथा देवियों के साथ परिवृत्त होकर, सर्व ऋद्धि से यावत वाजिन शब्द से जहाँ पर सिद्धायत्तन रहा हुआ है। वहाँ आता है। आकर सिद्धायतन में पूर्वद्वार से प्रवेश करता है। प्रवेश कर जहाँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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