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________________ (नोट)- द्रोपदी ऐसी दृढ़धर्मी थी कि उसने विवाह के अवसर पर भी श्री जिनप्रतिमा की पूजा करना अपना प्रथम कर्तव्य समझा। इसी आगम में द्रोपदी को सभ्यग्दृष्टि कहा है । देखिये (आ) "तेए णं सा दोवइ देवी कच्छुल्लाणारयं असंजम अविरय अप्पडिहय 'अप्पच्चक्खाय पावकम्मं तिकट्टाणो आढाइ णो परियाणाइ णो अभट्टइ।" __ अर्थात्-जब नारद आया तब द्रोपदी देवी उस कच्छल नामक नवमे नारद को असंयमी, अविरति, पापकर्म नहीं हने, नहीं पच्चक्खे (छोड़े) जिसने (अर्थात् -जिस नारद ने पापकर्मों का त्याग करने के लिए पच्चक्खाण नहीं किया) उसे आया हुआ जानकर भी न तो उसके आदर-सत्कार के लिए खड़ी हुई और न ही उसकी तरफ कोई ध्यान दिया । अर्थात् असंयमी नादि का सम्यग्दृष्टि द्रोपदी देवी ने कोई आदर सत्कार नहीं किया और न ही उसको निगार उठा कर देखा। (इ) "तए ण सा दोवई देवी छ8 छठेणं अणिखितणं आयंबिलं परिग्गहिएणं तवोकम्मेणं भावमाणी विहरइ । अर्थ- जब (पद्मोत्तर राजा ने द्रोपदी देवी को कन्या के अन्तःपुर में रखा) तब वह द्रोपदी देवी छठ-छठ (बेले-बेले-दो-दो उपवास) के पारणे आयंबिल करती हुई रहती है। इन तीनों आगम प्रमाणों से स्पष्ट है कि द्रोपदी देवी सम्यग्दृष्टि देशव्रतधारिणी परम-तपस्विनी जैनश्राविका थी और वह प्रतिदिन श्री जिनेश्वर प्रभु के मन्दिर में श्री तीर्थंकर प्रभु की मति (स्थापना जिन) की पूजा करती थी। य:। तक कि अपने विवाह के अवसर पर अतिव्यस्त होते हुए भी जिनेश्वर प्रभु की भक्ति को नहीं भूली। प्रश्न 1-स्थानकवासी (ढूढक) आचार्य श्री अमोलक ऋषि ने तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजा का निषेध करने के लिये "ज्ञाताधर्मकथांग आगम" में आये हुए इस सूत्र पाठ में "जिन पडिमाओ" का अर्थ कामदेव की मूर्ति किया है। अत: इस पर भी कुछ विचार करना आवश्यक है। समाधान-जैन शास्त्रों में कहीं भी जिन शब्द का अर्थ कामदेव नहीं किया गया। खेद का विषय है कि अपनी मिथ्या मान्यता की पुष्टि के लिए जिनप्रतिमा की पूजा के निषेध केलिये सूत्र के अर्थ को भी बदल डाला है । अतः यहाँ इस पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता है देखिये- स्थानांग सूत्र प्रागम का पाठ 1-"तो जिणा पं० त० ओहिनाण-जिणे, मण-पज्जव-नाण-जिणे, केवलनाण जिणे ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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