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________________ 70 आदि सबके द्वारा जैनागमों में जिनमन्दिर, जिन-प्रतिमाएं बनवाने तथा उनकी बन्दना, पूजा, उपासना, नमस्कार करने के बहुत प्रमाण मिलते हैं। प्रागम और प्रतिमा पूजन शंका - माना कि जिनप्रतिमा-मन्दिरों की स्थापना का जिकर आगमों में है पर उनकी पूजापद्धति जैन आगम की मान्यता के अनुकल नहीं हैं। समाधान -- आगमों में जिनप्रतिमा पूजन के विधि-विधान के पाठों की कोई कमी नहीं है । यहाँ पर कतिपय पाठों के उद्धरण देना ही पर्याप्त होगा। 1-अपने विवाह से पहले सम्यग्दृष्टि श्राविका द्रोपदी द्वारा जिनप्रतिमा पूजने का आगम पाठ श्री ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र में वर्णन है कि (अ) तए णं सा दोवइ रायवरकन्ना जेणेव मज्जणधरे तेणेव उवागच्छइ । उबागच्छइत्ता मज्जणधरमणुप्पविसइ हाया कयीलकम्मा कय-कोउ-मंगल-पायच्छित्ता सुद्धपावेलाई मगलाइवत्थाई पवरपरिहिया, मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जिणघरं अणुपविसह, अणुपवसत्ता जिणपडिमाणं बालोए पणाम करेइ, पणामं करइत्ता लोमहत्थयं परामुसइ, एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं, जाव धूवं डहइ डहइत्ता वाम जाणं अचेति दाहिणं जाणुधरणियलं णिवेसे इ णिवेसइत्ता तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेस इ निवेसइत्ता इसि वच्चुण्णमइ, करयल जाव कट्ट, एवं वयासि नमोत्थुणं अरिहताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ नमसइ नमसइत्ता जिणधराओ पडिमिक्खमइ, पडिखमइत्ता जेणेव अन्ते उरे तेणेव उवागच्छइ ।। (ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र अ० 16) अर्थ-तब वह द्रोपदी राजवर कन्या जहाँ स्नान करने का घर है, वहां गई और स्नानधर में प्रवेश किया। स्नान करके पूजा की सामग्री तैयार की। तिलकादि करके मंगल आदि द्रव्यों को लिया। शुद्ध पवित्र वस्त्र पहन कर स्नानघर से बाहर निकलकर जहां जिनेश्वर प्रभु का मन्दिर था वहाँ आई । वहाँ जिनधर (जिन मन्दिर) में प्रवेश करती है। प्रवेश करके दृष्टि पड़ते हो जिनप्रतिमा को प्रणाम करती है। मोरपीछी लेकर जैसे सूरियाभ देवता ने जिनप्रतिमा की पूजा की वैसे ही किया (अर्यात वैसे ही सत्रहमेदी-17 द्रव्यों से पूजा की) फिर धूप पूजा करके वाम (बायाँ) घुटना ऊँचा करके दाहिना (जीमना) जानू (घुटना) घरती पर स्थापन कर तीन बार मस्तक को धरती पर स्थापन किया यानी तीन बार बन्दना करके थोड़ा नीचे झुक कर मस्तक को धरती पर लगाती है । दोनों हाथों की हथेलियों और दसों अंगुलियों के नखों को मिलाकर मस्तक पर अंजली करके ऐसा कहती है-"नमस्कार हो अरिहंत भगवन्तों को (यहाँ से प्राम्भ करके) सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं" तक अर्थात् पूरे नमोत्थुणं (शकस्तव) का पाठ करके जिन मंदिर : बाहर गई और फिर अपने अतःपुर में आई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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