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________________ 33 हो सकते क्योंकि वे स्वयं कर्मबद्ध हैं । श्री जिनेन्द्रदेव ( तीर्थंकर) परमात्मा में उपर्युक्त एक भी दोष न होने से सर्वथा दोष रहित हैं और घाती कर्मों के क्षय होने से वे वीतराग सर्वदर्शी सर्वज्ञ भी हैं । अतः यही वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी सर्वगुण सम्पन्न तीर्थंकर परमात्मा ही भव्य जीवों को इस भव अटवी से उद्धार करने में समर्थ हैं । • अन्य कोई नहीं । कारण यह है कि ऐसे जिनेश्वरदेव का वचन ही एकान्त हितकारी है क्योंकि असत्य भाषण के कारण अज्ञान, राग-द्वेषादि दोषों का सर्वथा अभाव । मनुष्य -तीन कारणों से असत्य बोलता है । राग से, द्व ेष से अथवा अज्ञान से 1 1- यदि किसी के प्रति राग होगा तो उस में चाहे कितने भी दोष होंगे तो भी रागी व्यक्ति को वे दिखलाई नहीं देंगे अथवा उन दोषों पर उस का लक्ष्य ही नहीं जावेगा । अत: वह उसको प्रशंसा ही करेगा उसे दुर्गुणों की प्रशंसा करने से -असत्य का प्रयोग करना पड़ा । 2- यदि किसी के प्रति द्वेष होगा तो उसमें चाहे कितने सद्गुण क्यों न हों - तो भी द्वेषी व्यक्ति का उसके सद्गुणों की ओर लक्ष्य नहीं रहेगा । किन्तु द्वेषी तो उसकी निन्दा ही करेगा । सद्गुणों की निन्दा करने से उसे झूठ का सहारा लेना "पड़ा । 3- कोई व्यक्ति अज्ञानी हो । आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को न जानता हो -सत्य-झूठ का विवेक न हो तो वह भी असत्य का प्रयोग किये विना नहीं रह सकता जैसे आत्मा-परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को न जानने वाला व्यक्ति अज्ञानवश अवास्तविक स्वरूप बतलावेगा । अतः उस का रचित साहित्य भी सत्य पर आधारित नहीं हो सकता । तो वह आत्म कल्याणकारी कैसे हो सकता है ? किन्तु जिसमें अज्ञान, राग-द्वेष आदि नहीं हैं उसे असत्य बोलने का कोई प्रयोजन नहीं है । परमार्थिक देव (ईश्वर) यस्य संक्लेशजननो रागो नास्त्येव सर्वथा । न च द्वेषोऽपि सत्वेषु शर्मेन्धन दावानलः ॥1॥ न च मोहोऽपि सज्ज्ञानाच् छानोऽशुद्ध-वृत्त-कृत । त्रिलोक ख्यात-महिमा महादेवः स उच्यते ||211 जिस के सक्लेशजनक (आत्मा के स्वाभाविक स्वभाव को हानि पहुंचाने वाला) राग अभिष्वग का अंशमात्र भी सर्वथा नाश हो गया है तथा प्राणियों को उपशम (शांति) रूपी ईंधन को जलाने के लिए दावानल समान द्वेष (अप्रीति-वैरभाव ) भी नहीं है । पाप-मल से कलंकित व्यवहार ( बर्ताव ) करने वाला तथा सद्भूत अर्थ के ज्ञान को आपछादित करने वाला मोह अज्ञान का अंश भी नहीं है । ऐसे तीतलोक प्रसिद्ध महिमा वाले व्यक्ति विशेष को महादेव कहते हैं । (वह जिनेन्द्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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