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यानी जो देव (ईश्वर-परमात्मा) राग, द्वेष, मोह, अज्ञान से रहित है उसे देवाधिदेव महादेव कहते हैं।
यो वीतरागः सर्वज्ञो यः शाश्वत-सुखेश्वरः। क्लिष्ट-कर्म-कलातीतः, सर्वथा निष्कलस्तथा ॥3॥ यः पूज्यः सर्वदेवानां यो ध्येयः सर्वयोगिनां । यः स्रष्टा सर्व-नीतीनां महादेवः स उच्यते ॥4॥ (युग्मम्)
जो वीतराग (राग-द्वेष-काम-मोह आदि रहित), सर्वज्ञ (सर्व धाती कर्मावरण के क्षय हो जाने से उत्पन्न हुए समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय को विषय करने वाले केवलज्ञान को तथा केवलदर्शन को धारण करने वाले) शाश्वत सुख (निरन्तर रहने वाला निर्वाण-जनित सुख), सर्व क्लिष्ट (घाती) कर्मों को नाश करने वाले, सब दोषों से रहित, सब देव-दानवो के पुज्य हैं, सब योगियों के ध्येय हैं, सर्व नीतियों के स्रष्टा हैं, उन्हें महादेव (देवाधिदेव) कहते हैं।
, यस्य निखिलाश्च दोषान सन्ति सर्वे गणाश्च विद्यन्ते ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।5।।
निस के सब दोष नष्ट हो गये हैं, जिस में सर्व गुण विद्यमान हैं, वह नाम से चाहे ब्रह्मा, हर (महादेव-शिव-रुद्र), विष्ण, जिन (अर्हत्) अथवा कोई भी हो, उसे नमस्कार है।
सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रलोक्य-पूजितः।
यथावस्थितार्थवादी स देवोऽहन्त-परमेश्वरः ॥6॥
अर्थः सर्वज्ञा-जीव अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता:-जितरागादि दोष-आत्मा को दूषित करने वाले समस्त राग-द्वेषादि अठारह दोषों को जीतने वाले - त्रैलोक्य पूजित-देव, दानव, मानव, तिर्यच आदि (ऊर्व, मध्य, अघो) तीन लोक के उत्तम प्राणियों से वन्दन, सेवा, पूजा, स्तोत्रादि द्वारा) पूजित और यथास्थितार्थवादीसत्य तत्त्व रूपी अमृत का धर्मदेशना द्वारा पान कराने वाले ऐसे श्री अरिहंत परमात्मा ही देव हैं।
ध्यातव्योऽयमपास्योऽयमेव शरणमिष्यताम् ।
अस्यैव प्रतिपेत्तव्यं शासनं चेतनाऽस्ति चेत् ॥7॥
यदि आप में सद्-असद् का विचार करने की चेतना-विवेक बुद्धि है तो ऐसे देव (ईश्वर परमात्मा) का ध्यान करना, उपासना करना, उनकी शरण में जाना और उन्हीं के शासन (धर्ममार्ग) को स्वीकार कर आचरण में लाना (ताकि इधरउधर भटकने की बजाय सत्पथगामी बनकर आत्म कल्याण करने के भाग्यशाली बन सकें।
2-इसमें तीर्थकर देव के चार अतिशयों का संकेत है। 1 सर्वत्र से ज्ञाना-- तिशय, 2-अपायापगमातिशय, 3-पूजातिशय, 4-वचनातिशय ।
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