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स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता। इसका कहना है कि ईश्वर के सिवाय सब माया ( भ्रम) मात्र है यथा-' - "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" की मान्यता है ।
(इ) तीसरा वर्ग - वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषद आदि मतावलम्बी- वैष्णव, सनातनधर्मी तथा उन के अनेक सम्प्रदार्य उपसम्प्रदाय हैं । यह विचारधारा ईश्वर “को अनादिकाल से अरूपी आदि ( दूसरी विचारधारा 'अ' वर्ग के समान ही ) मानते हुए भी उस ईश्वर का अवतार लेकर सशरीरी रूप में इस पृथ्वी पर आना और भगतों को दानव-संताप तथा भव-संताप के त्राण से छुटकारा दिलाकर वापिस लौटकर 'पूर्ववत् अशरीरी (अरूपी अवस्था में विद्यमान हो जाना) मानती है । मच्छ, कच्छप, वराह, नरसिंह, राम, कृष्ण, परशुराम, वामन बुद्ध कल्की ये दस अवतार ईश्वर के -माने हैं । इन में नो तो हो चुके हैं, कल्की होना बाकी है। ये दस अवतार क्रमश: भारत में ही अवतरित होते हैं । एक ही अरूपी ईश्वर बार-बार शरीरधारण करके माता के गर्भ से जन्म लेता है, भक्तों के कष्टों को दूर करता है और अनेक प्रकार के कौतुक - लीला रचाकर आयु पूरी करके मृत्यु पाकर वह अरूपी ईश्वर की अवस्था पुनः प्राप्त कर -लेता है । इस प्रकार यह विचारधारा ईश्वर की अरूपी-रूपी दोनों अवस्थाएँ स्वीकार करती है । जो प्राणी इस ईश्वर की भक्ति उपासना करते हैं वे वैकुण्ठ में चले जाते हैं । पर वे जिस ईश्वर की उपासना करते हैं उसके तुल्य कदापि नहीं बन पाते और न उस में समा जाते हैं उनका दर्जा उस अरूपी ईश्वर से कम ही रहता है । 38 (ई) चौथा वर्ग - अपने इष्टदेव को मात्र रूपी मानता है ।-- इस वर्ग में बुद्धधर्म आता है। आत्मा, पुद्गल आदि जितने भी पदार्थ विश्व में विद्यमान हैं यह उन सब को क्षणस्थायी मानता है । इसका कहना है कि आत्मा क्षणमात्र में नष्ट हो जाती है और वह अपने पीछे संतान छोड़ जाती है । दूसरे नष्ट हो जाती है और अपने पीछे संतान छोड़ जाती है और जब तक आता का परिनिर्वाण नहीं होता यह सिलसिला चाल रहता है । परिनिर्वाण के बाद यह सिलसिला भी समाप्त हो जाता है और आत्मा का अस्तित्व एकदम समाप्त हो जाता है । यह मत परिनिर्वाण के बाद अशरीरी -अरूपी परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं मानता ।
क्षण में वह संतान भी
39- वेद धर्मानुयायियो में अवतार की मान्यता अर्वाचीन है । महावीर और बुद्ध के बहुत समय बाद की है । पहले इन्होंने इन दस अवतारों की कल्पना की । पश्चात् इन दस अवतारों के साथ ऋषभदेव, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि को मिलाकर चौबीस अवतारों की मान्यता स्वीकार कर ली। गौतमबुद्ध का नाम आने से यह स्पष्ट है कि इन के अवतारवाद की कल्पना महावीर और बुद्ध के बाद की है । इस अवतारवाद को मानने वाला सम्प्रदाय वैष्णव अथवा सनातनधर्म के नाम से प्रसिद्धी पाया और जैनों की देखा-देखी इन्होंने इन अवतारों के मन्दिरों में मूर्तियों की स्थापनाएँ कीं ।
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