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________________ (उ) पाचवा वर्ग-माहंत-निर्ग्रन्थ धर्म है। वर्तमान में इस की प्रसिद्धी जैन धर्म के नाम से है। इसकी मान्यता है कि चेतन्य स्वरूप आत्मा (जीव) अनादिकाल से स्वतंत्र तत्त्व है और अनन्तकाल तक शाश्वत विद्यमान रहेगा। न इसकी उत्पत्ति है और न विनाश । सदा से विद्यमान है और सदा रहेगा । वह अरूपी, चैतन्य-स्वरूप ज्ञान-दर्शन-चरित्रमय स्वतंत्र द्रव्य है। जीव अनन्तानन्त हैं इन सब जीवों का अस्तित्व अलग-अलग है। सब आत्माएं अनादि काल से कर्मबन्धन से बद्ध हैं । कर्म पुद्गलात्मक (पुद्गल से बनते ) हैं । पुद्गल रूपी और जड़ हैं। कर्मों का आत्मा के साथ बन्ध होने से उनका प्रभाव आत्मा पर पड़ता है और उन्हीं के प्रभाव से आत्मा स्वयं जन्मजरा-मृत्यु, सुख-दुःख आदि प्राप्त करता है। चारों गतियों, चौरासी लाख जीव योनियों में भ्रमण करता है । सम्यग्दर्शन-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र की अराधना करने से जीव सर्व कर्मबन्धनों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है, छुटकारा 'पा जाता है । निर्मल-शुद्ध होकर अपने असली अरूपी स्वरूप को प्राप्त कर लोक के ऊपरी अग्रभाग पर सदा सर्वदा अनन्तकाल तक शुद्ध स्वरूप में बना रहता है। संसारी आत्मा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों से बद्ध है। जब वह मोहनीय आदि चार धाती कर्मों का क्षय कर लेता है तब वह वीतरागावस्था को प्राप्त कर केवलदर्शन केवलज्ञान प्राप्त कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर सारे विश्व के सब चरावर पदार्थों को साक्षात् जानता और देखता है। यह अवस्था आत्मा को सशरीरी परमात्मा-ईश्वर की हो जाती हैं। अब यह संसारी जीवों को अपने ज्ञान तथा चारित्र द्वारा अनुभूत एवं उसी प्रकार के ज्ञान और चारित्र को प्राप्त करने का मार्ग अपने उपदेशों द्वारा बतला कर विश्व के प्राणियों को मोक्षमार्ग का दर्शन कराता है और उसकी आचरणा का उपदेश देकर आत्मकल्याणकारी मार्ग को अपनाने की प्रेरणा देकर धर्मसंघ की स्थापना करता है। अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना कर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करता है। इस की उपदेशरूप वाणी द्वादशांगवाणी तथा इसके द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ दोनों तीर्थ कहलाते हैं . इस प्रकार उपयुक्त दोनों तीर्थों के कर्ता होने से शरीरधारी अर्हत् तीर्थकर कहलाते हैं। जब तक ये जीवित रहते हैं तब तक संसारी जीवों को संसार के दुःखों से, कम बन्धनों से, जन्म-जरा-मृत्यु से सर्वदा केलिए छुटकारा पाने केलिए मार्गदर्शन कराते हैं और जो लोग उन के दर्शाये हुए मार्ग को स्वीकार करके आचरण द्वारा आत्म साधना करते हैं वे आर्हत् अथवा जैन कहलाते है। ___ इस प्रकार जनदर्शन ईश्वर को नीतिकर्ता मानता है परन्तु सृष्टिकर्ता नहीं मानता । कारण यही है कि तीर्थकर अपनी देशना (उपदेश) द्वारा संसारी प्राणियों को नीतिमय जीवन के निर्माण के लिए प्रेरक है इसलिए उन्हें इस सृष्टि में विद्यमान प्राणियों को नीति सम्पन्न करने वाला कर्ता मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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