SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20 होती है तब कुशल व कल्याणकारी सब आचरण भी स्थिरता और निर्मलता को प्राप्त होते हैं और वे दृढ़ता से किये जा सकते हैं और सफल भी होते हैं। इसी लिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रधान कारण शुद्ध-पवित्र भावना है । शुद्ध पवित्र भावना के अनुसार प्राप्त ज्ञान ही वस्तुतः सम्यग्ज्ञान है । ज्ञान के तीन भेद हैं- 1-श्रु तज्ञान, 2-चिन्तनज्ञान, तथा 3-भावनाज्ञान । 1.श्रु तज्ञान-वाक्य के अर्थ मात्र को संदर्भ के अनुसार बतलाने वाला, मिथ्या आग्रह रहित और मंडार में रहे हुए अन्न के बीज के सदृश श्रु तज्ञान है । 2-चिन्तनज्ञान-सर्वधर्मात्मक वस्तु को प्रतिपादन करने वाला, अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) विषय वाला, अति सूक्ष्मबुद्धि से जानने लायक, सूयुक्ति पूर्वक तर्क द्वारा सोचा हुआ तथा जल में तेल बिन्दु की तरह विस्तार वाला-चिन्तनज्ञान है 3-भावनाज्ञान-श्री वीतराग सर्वज्ञ की आज्ञा को ग्रहण करने वाला, विधि द्रव्यदाता व पात्र के प्रति आदर वाला, उच्च तात्पर्य सहित जो ज्ञान है-वह भावनाज्ञान है। अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन है-श्रवण, मनन और निदिध्यासन । 1-श्रवण का ज्ञान श्र तज्ञान है, जो बीज की तरह जितना हो उतना ही रहता है । 2मनन के चिन्तन से ज्ञान बढ़ता है, परिष्कृत होता है। ऐसे ज्ञान का चिन्तनज्ञान कहते हैं । 3-आत्मा जब एक ध्यान होकर उधर (अपने चिन्तन ज्ञान में) गहराइयों में उतरने के लिए भावना व निदिध्यासन करे तब सम्पूर्ण सामर्थ्य से प्रगट होने वाला ज्ञान भावनाज्ञान है । भावना ज्ञान से ही पूर्ण रहस्य प्राप्त होता है। अतः भावना के अनुसार जो विशेष ज्ञान होता है वही वस्तुतः ज्ञान कहा जाता है। ___ सारांश यह है कि-पहले श्रवण होता है वह श्रुतज्ञान है। उसके पश्चात् उस ज्ञान के विस्तार पूर्वक सत्यस्वरूप को गहराई तक समझने के लिए दिमाग में जो तर्क, सुयुक्तियों का विचार पूर्वक चिन्तन होता है वह चिन्तनज्ञान है। 3-जब वह हृदय में उतरता है तब भावना ज्ञान होता है । यानी जिस ज्ञान को अनुभव से हृदय स्वीकार करता है वह भावना ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान होता है और वही सत्य श्रद्धा है । अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान है ____ कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार भावना ज्ञान से वस्तु का ज्ञान व श्रद्धा होती है, वसा मात्र श्र तज्ञान से नहीं होता । जो सुना, उसके बाद मनन चिन्तन किया और भावना से जाना वही यथार्थ ज्ञान है । जिस बुद्धिमान विचक्षण मानव को चिन्तन मनन और निदिध्यासन पूर्वक भावना ज्ञान हुआ है वही हित. अहित के भेद के अन्तर को समझ सकता है। वही हित में प्रवति कर सकता है और महित से निवृत हो सकता है। यानी हित और अहित में क्षीर-नीर के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy