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________________ 19 नि:संकोच माननी पड़ेगी। इस पर से यह सिद्धान्त स्थिर हो सकता है कि-सुख-दुःख के कारणभूत कर्म का आधार मन की वृत्तियां हैं और उन वृत्तियों को शुभ बनाने का, उसके द्वारा आत्म विकास साधने का तथा सुख-शान्ति प्राप्त करने का प्रशस्त साधन भगवद् उपासना है और उस से वृत्तियाँ शुभ होती हैं, आगे विकसित होती हुई शुद्ध होती हैं। इस प्रकार भगवद् उपासना-पूजनादि कल्याण साधन का मार्ग बनती हैं। विवेकपूर्ण योग्य अनुष्ठान करना ही कर्मक्षय करने का मुख्य साधन हैं 8 जो अनुष्ठान आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए योग्य है वही उचित अनुष्ठान है । उचित अनुष्ठान में प्रयास करने से ही विजय होती है । अतः उचित अनुष्ठा ही कर्मक्षय का कारण है। 1. प्रश्न उचित अनुष्ठान से कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? समाधान—सर्व प्रथम उचित व अनुचित अनुष्ठान का भेद समझना चाहिए । करने न करने योग्य का भेद जानना चाहिए । जिसे ऐसा विवेक जागृत हो गया है वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र (रत्नत्रय) का ठीक तरह से आराधन कर सकता है और रत्नत्रय के आराधन से ही कर्मक्षय हो सकते हैं ! 2-प्रश्न --- यदि उचित अनुष्ठान न हो तो क्या परिणाम आता है ? समधान-विवेक जागृत हो जाने पर उचित अनुष्ठान ही होता है अनुचित अनुष्ठान नहीं होता। जो अनुष्ठान केवल मोक्ष फल प्राप्ति की भावना से किया जाता है वही जैनशास्त्र के अनुसार यथार्थ अनुष्ठान है। मोक्ष के सिवाय अन्य किसी भी प्रकार का किया हुआ अनुष्ठान कर्म निर्जरा व कर्म क्षय का कारण नहीं है। __ अत: चाहे गृहस्थधर्म हो अथवा मुनिधर्म हो उसके लिए उचित-यथार्थ अनुष्ठान ही श्रेयस्कर है इसमें सन्देह नहीं है । क्योंकि भावना ही प्रधान होती है । भावना उच्च होने से परिणाम उत्तम लाभप्रद ही होता है, उच्च भावना से उच्च कार्य करने के लिए प्ररेणा मिलती है अतः निरन्तर उच्च भावना रखनी चाहिए। उच्च भावना से हो उचित-यथार्थ अनुष्ठान श्रेयस्कर है । कहा भी है कि "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो" अथवा "यादशी भावना यस्य सिद्धिभर्वति तादशी" अर्थात्-मन ही मनुष्यों को कर्मबन्ध अथवा निर्जरा और मोक्ष का कारण है । अथवा जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि होती है। यदि भावना उच्च हो तो विचार, वचन-वाणी और कार्य भी सब उच्च होंगे अतः भावना पर ही सब कार्यों का आधार है । जब भावना निर्मल और स्थिर 38. आचार्य श्री हरिभद्र सूरि कृत धर्मबिन्दु ग्रन्थ के आधार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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