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________________ 18 हो जाते हैं । अतः अच्छा पवित्र संस्कार प्राप्त करने की और वसे संसर्ग में रहने की विशेष आवश्यकता बनी रहती है । वीतराग सर्वज्ञ देव का स्वरूप परम निर्मल और शांतिमय है । राग-द्वेष का रंग किंवा तनिक सा भी प्रभाव उसके स्वरूप में बिल्कुल नहीं है । अतः ऐसे ईश्वर का आलम्बन लेने से, ध्यान करने से, पूजा उपासना भक्ति करने से पूजक की आत्मा में वीतराग भाव का संचार होता है । सब कोई समझ सकते हैं कि एक रूपवती रमणी के संसर्ग से एक विलक्षण प्रकार का भाव उत्पन्न होता है । पुत्र को देखने से अथवा मित्र को मिलने से स्नेह की जागृति होती है और एक परम त्यागी मुनि के दर्शन करने से हृदय में शांतिपूर्ण आह्लाद पैदा होता है । सज्जन की संगति सुसंकार और दुर्जन की संगति कुसंस्कार का वातावरण पैदा करती है । इसी लिए कहा जाता है कि- "जैसी संगत वैसी रंगत" । तब वीतराग परमात्मा की सत्संगत कितनी कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है इस का तो कहना ही क्या है ! वीतराग सर्वज्ञदेव की संगत, उनका भजन, स्तवन, स्मरण, वन्दन, भक्ति, पूजन आदि के सबल अभ्यास से आत्मा में ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि राग-द्वेष आदि की वृत्तियां शांत होने लगती है । यह ईश्वर पूजन का मुख्य और वास्तविक फल है । पूज्य परमात्मा पूजक की ओर से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता । पूज्य परमात्मा का पूजक की ओर से भी कुछ उपकार नहीं होता । पूज्य परमात्मा । को पूजक के पास से कुछ भी नहीं चाहिये । पूजक मात्र अपनी आत्मा के उपकार के लिए ही पूज्य परमात्मा की पूजा करता है और उस परमात्मा के आलम्बन से अपनी एकाग्र भावना के बल से वह पूजक स्वयं फल प्राप्त कर सकता है । जिस प्रकार अग्नि के पास जाने वाले की सर्दी अग्नि के सानिध्य से स्वतः चली जाती है, अग्ति किसी को फल पाने के लिए अपने पास बुलाती नहीं है और प्रसन्न होकर किसी को फल देती नहीं है । जिस प्रकार दीपक अथवा सूर्य के प्रकाश से अंधेरा स्वयं नौ दो ग्यारह हो जाता है, वैसे ही वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर के प्रणिधान से रागादि दोष रूप सर्दी अथवा अज्ञान रूपी अन्धकार स्वत: भागने लगते हैं और आत्म विकास का फल मिल जाता है । परमात्मा के सद्गुणों के स्मरण से भावना विकसित होती जाती है, मनचिस का शोधन होने लगता है और आत्मविकास बढ़ता जाता है । इस प्रकार परमात्मा की उपासना का यह फल उपासक स्वयं अपने आध्यत्मिक प्रयत्न से ही प्राप्त करता है । यह बात सही है कि वेश्या का संग करने वाले मनुष्य की दुर्गति होती हैं, परन्तु वह दुर्गति करने वाला कौन ? यह विचारना चाहिए । वेश्या को दुर्गति देने वाली मानना उचित नहीं, क्योंकि एक तो वेश्या को दुर्गति का भान नहीं है और इसके अतिरिक्त कोई भी किसी को दुर्गति में ले जाने के लिए समर्थ नहीं है, दुर्गति में ले जाने वाली मन की मलिनता के सिवाय अन्य कोई नहीं, यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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