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________________ 170 यह है कि तीर्थंकर प्रतिमा द्वारा तीर्थंकर के गुणों का चिंतन-मनन-उपासना की जाती है न कि जड़ पुद्गल की पुजा-भक्ति । जीवित तीर्थंकर के भी गुणों की पूजा की जाती है न कि पुद्गल की । मूर्ति पूजा को न मानने वाले कहते हैं कि मति पूजा में एकान्त हिंसा है। पूजा में फल-फूल आदि जो द्रव्य चढ़ाए जाते हैं उन की हिंसा होती है। पर्व के दिनों में फलों आदि सचित्त आहार का श्रावक को त्याग होता है, उस दिन भी इन फलों आदि को मूर्ति की पूजा में चढ़ाते हैं अतः इसमें भी दोष है। जिनप्रतिमा पूजन का ध्येय तथा लाभ ___1. पूजन का ध्येय प्रत्येक कार्य के पीछे एक ध्येय होता है। मूर्ति स्थापित करने का भी एक ध्येय है और वह यह है-"चंचल मन को, जो स्वभाव से ही विषयासक्त और कामी है उसे शुद्ध गणों की ओर प्रेरित किया जा सके।" चंचल मन की गति किसी से छिपी नहीं है । इसलिये महापुरुषों ने साधारण व्यक्तियों केलिये कुछ ऐसे आलम्बनों की विशेष आवश्यकता समझी । जिन के सहारे इस चंचल मन को सुधार कर सन्मार्ग की ओर प्रवृत किया जा सके। मूर्तिपूजा से व्यवहार में चंचल मन को परमात्मा के गुणों में कुछ अभ्यस्त किया जा सके, महापुरुषों की तो सदा यही निर्मल भावना रही है। इसके सहारे से पहले परमात्मा में बहुमान और अनुराग बढ़ता है । फिर धीरे-धीरे मानव उनके शुद्ध गुणों में ओतप्रोत होकर विषयों से हटने लगता है। इस आलम्बन से रुचि न रखने वाले अथवा कम रुचि रखने वालों में भी शुद्ध गुणों में रुचि उत्पन्न हो जाती है । और भक्त मनुष्य सत्पथगामी बन जाता है। अधिक क्या कहा जाय न तो परमात्मा को इससे कुछ लेनादेना है और न भक्त ही सांसारिक वस्तुओं की वांछा रखता है। अनुराग पूर्वक परमात्मा के गुणों का स्मरण अनुमोदन करते हुए उन्हीं गुणों को अपनी आत्मा में जगाना ही सब समय साधक का ध्येय रहता है। श्रमण भगवान महावीर से पहले-प्रोगेतिहासिक काल से लेकर आज तक जिनप्रतिमाओं की स्थापना तथा उनकी भक्ति और पूजन होता आ रहा है । जिनप्रतिमा की उपासना द्वारा मिथ्यादृष्टि से लेकर सर्वविरति निग्रंथ मुनियों तक ने आत्मकल्याण किया है। तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के बाद भरतक्षेत्र में तीर्थकर का सर्वथा अभाव है उनके बाद तो मात्र तीर्थंकर की मूर्ति द्वारा ही तीर्थंकर की अनुपस्थिति को पूरा किया जा सकता है और किया जा सकेगा । जैन आगमों में तिथंच से लेकर मनुष्यों इन्द्रों, देवी देवताओं, गृहस्थ स्त्री-पुरुषों, त्यागी साधु-साध्वीयों तक ने जिनप्रतिमा की उपासना से आत्मकल्याण करने के प्रमाण विद्यमान हैं। 1. जैसे कि प्रभु महावीर के समकालीन महाराजा श्रेणिक के पुत्र प्रधानमन्त्री अभयकुमार ने अनार्यदेश में उत्पन्न अपने मित्र आर्द्रककुमार को जिनप्रतिमा भेजी। जिसे देखकर दर्शन करने से उसे जातिस्मरण ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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