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________________ 171 सम्यक्त्व प्राप्त कर प्रतिबोध पाकर आर्य देश में आकर जैन साधु की दीक्षा ग्रहण की। 2. विद्युन्माली देवता द्वारा निर्मित प्रभु महावीर की चन्दन की प्रतिमा सिंधुसौवीर देश की राजधानी वीतभयपत्तन में उदायन राजा की पटरानी प्रभावती ने अपने राजमहल में मंदिर बनवाकर विराजमान की और उसकी प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न तया संध्या (तीन समय) पूजा करती रही। 3. अंतिम केवली जम्बूस्वामी के शिष्य पट्टधर श्री प्रभवाचार्य के पट्टधर श्री शय्यंभवसूरि ने श्री शांतिनाथ प्रभु की मूर्ति के दर्शन करने से प्रतिबोध पाकर जैन साधु की दीक्षा ग्रहण की। बाद में यह शय्यं भव श्रीसंघ नायक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। यह प्रभु श्री महावीर के पश्चात प्रथम संघनायक पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी के चौथे पाट पर हुए। 1-सुधर्मास्वामी, 2-जम्बू स्वामी, 3-प्रभवाचार्य, 4-शय्यंभव सूरि हुए । यह समय भगवान महावीर के निर्वाण के बाद प्रथम शताब्दी का है। 4. जैनाचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर जो राजा विक्रमादित्य के प्रतिबोधक धर्मगुरु थे, जिनको आज दो हजार वर्षों से भी ऊपर हो गए हैं । उन्होंने श्री पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति रूप श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से शिवलिंग में से श्री पार्चनाथ की मूर्ति प्रगट हुई । इस कल्याणमंदिर स्तोत्र के कुछ इलोकों द्वारा उनकी जिनप्रतिमा की भक्ति का परिचय देना बहुत उपयोगी है जिससे पता लग जावे कि जिनप्रतिमा की साक्षात् तीर्थकर पार्श्वनाथ के रूप में उपासना कर आत्मकल्याण के लिए कैसे सफल हुए। कहने का आशय यह है कि जब तक जिनप्रतिमा को साक्षात् भगवान मानकर भक्ति न की जावे तब तक न तो भाव ही प्रगट होते हैं और न ही तन्मयता ही होती है। कल्याणमन्दिर स्तोत्र द्वारा श्री पर्श्वनाथ प्रभु के चार निक्षेपों की भक्ति 1. नाम निक्षेप (प्रभु के नाम स्मरण का माहात्म्य) आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन सस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीवातपोपहतपान्थजनान्निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥7॥ अर्थात्-हे जिनेश्वर ! आप के स्तोत्र की महिमा अचिन्त्य है। यदि आपका स्तोत्र न भी किया जावे तो भी मात्र तुम्हारा नाम ही तीन जगत के प्राणियों को संसार में भटकने से बचा लेता है। जैसे गरमी के सख्त ताप से संतप्त-व्याकुल पथिक जनों को कमलों के सरोवर की ठण्डी वायु ही प्रसन्न करती है तो फिर सरोवर का जल तथा उसमें उगे हुए कमल उस पथिक को प्रसन्न करें उसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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