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________________ 169 उदय और नीचगति कर्म का बंधन है। हम पहले लिख आये हैं कि शास्त्र में जिस मकान की दीवाल आदि में स्त्री का चित्र चित्रित हो उसे साधु न देखे और वहां निवास भी न करे क्योंकि उसको देखने से मन में विकार आना सम्भव है परन्तु स्थू लिभद्र की गृहस्थावस्था के प्रेमिका कोशा नाम वाली वेश्या थी, उसके वहां वे बारह वर्षों तक सांसारिक सुख भोगते रहे। बाद में संसार से विरक्त होकर सब प्रकार के भोगोपभोगों का त्यागकर पांच महाव्रत अंगीकार कर निग्रंथ श्रमण (जैन साधु) हो गये। वर्षा ऋतु आने पर वर्षावास (चतुर्मास) बिताने के लिए गुरु की आज्ञा लेकर कोशा वेश्या के यहां गए और जिस कमरे की दीवालों पर कामभोग के चौरासी आसनों के चित्र बने थे, उस चित्रशाला में सारा चौमासा व्यतीत किया। वहां सदा सर्वथा निर्दोष निष्कलंक रहते हुए चतुर्मास व्यतीत करके गुरु के पास लौटे। गुरु जी ने उनका बहुमान पूर्वक सत्कार किया और दुष्कर-दुष्करकारक कहकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की । शास्त्रकारों ने उनके इस अलौकिक अनन्य साहस पूर्ण उदाहरण को स्वर्णाक्षरों से लिखा। इससे स्पष्ट है कि यह सब भावना पर निर्भर है न कि चित्र अथवा स्थापना का दोष या करामात है। स्थापना तो साधु केलिए आलम्बन अवश्य है । इसके विषय में हम पहले "खोया-पाया" के दृष्टांत में विवेचन कर आये हैं। समवायांग, दशाश्रुतस्कन्ध, दशवकालिक आदि आगमों में गुरु की तेतीस आशातनाओं में पाद-पीठ-संथारा प्रमुख को पैर लगे तो गुरु की आशातना हो, ऐसा कहा है । पर उस पाद-पीठ-संथारा आदि में गुरु तो विद्यमान नहीं है तो भी उनकी पांव लगने से आशातना मानी है। तो यह स्थापना हो गई और इसकी आशातनाअविनय करना पाप बतलाया है मूर्ति मान्यता के निषेधक कहते हैं कि यदि तीर्थंकर की मूर्ति की उपासना से आत्मबंचना नहीं है तो मूर्ति निर्माता की पूजा क्यों न की जावे क्योंकि मूर्ति स्रष्टा की कृपा का ही तो परिणाम है जिसने उसे आपको दिया है।। इसका समाधान यह है कि मूर्ति बनाने वाले में तीर्थंकर के गुण विद्यमान नहीं है इसलिये उसकी उपासना करने से आत्मकल्याण संभव नहीं। कोई भी समझदार व्यक्ति तीर्थंकर को उत्पन्न करने वाले माता-पिता को उपास्य नहीं मानता तथा साधु के माता-पिता में साधू के गुणों का अभाव होने से उनको पूज्य आप भी नहीं मानते। यदि आप मूर्ति निर्माता को पूज्य मानने का तर्क लेकर तीर्थंकर प्रतिमा की उपासना का निषेध करना चाहते हैं तो आप को भी साधु को वन्दना नमस्कार न करके उसके मातापिता को साधु से भी अधिक पूज्य मानने में आपत्ति क्यों हैं ? पर आप भी ऐसा नहीं करते । मूर्ति निषेधक यह भी कहते हैं कि मूर्ति में जीवित तीर्थंकर के शरीर वाले पुद्गलों का अभाव होने से वह तीर्थंकरवत् पूज्य नहीं है । समाधान यह है कि तीर्थंकर प्रतिमा की उपासना के विरोधी पंथ जो अपने साधु गुरुओं के चित्र-फ़ोटो को बनवाकर उनका सम्मान तथा आदर करते हैं तो उसमें भी उस साधु के शरीर के पुद्गलों से भिन्न पुद्गल हैं फिर ऐसा क्यों करते हैं ? दूसरी बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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