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________________ 158 अवस्था नहीं है, वे तो नरकादि में पड़े हैं। तीर्थंकर नाम कर्म निकचित करने से 'भविष्य में होने वाले तीर्थंकर हैं। स्पष्ट है कि भूतकालीन और भविष्यकालीन अवस्थाओं का वर्तमान में संकल्प करके वन्दन-कीर्तन-नमस्कार आदि करते हैं। यह द्रव्य निक्षेप से जिनको नमस्कार किया जाता है। यदि कहो कि अतीतकाल में हो गए श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थकरों को वे जिस आकार में थे उस आकार को मन में धारण करके नमस्कार करते हैं आकार तो रूपी है और रूप जड़ पुद्गल का गुण है न कि आत्मा का और इस समय उनके आकार में भी तीर्थंकर अवस्था नहीं है । तो स्पष्ट है कि उनके आकार की कल्पना करके आपने भूतकाल में हो गए तीर्थंकरों को नमस्कार किया। तो स्थापना निक्षेप को बन्दन नमस्कार हो गया और इसके द्वारा आप ने जिनके प्रति भक्ति का प्रदर्शन किया। श्री स्थानांग सूत्र तथा श्री नन्दी सूत्र में वर्णन आया है कि: "मारीचि के भव में तापस के वेश में (बाह्य और अभ्यंतर से दोनों में जब तीर्थकर की अवस्था का अभाव था तब उसे वर्धमान-महावीर मानकर भरत चक्रवर्ती ने वन्दना की। इस घटना को शास्त्रकारों ने वर्णन कर उसके इस कृत्य की प्रशंसा की है और उसे उचित माना है। यह भविष्यकाल को होने वाली जिन अवस्था को वर्तमान काल में मानकर द्रव्य निक्षेप को वन्दन किया गया। 4. शक्रस्तव-नमुत्थुणं के पाठ में अरिहंत भगवन्तों को भाव निक्षेप से वन्दन किया गया है। प्रभु का साथ छोड़ देने वाला गोशाला, जमाली आदि शिष्यों को वन्दन न करने का कारण उनमें भाव निक्षेप का अभाव है। इसीलिए कहा है कि जिसका भाव निक्षेप शुद्ध है उसके चारों निक्षेप वंदनीय हैं। जिसका भाव निक्षेप शुद्ध नहीं उनका कोई निक्षेप भी पूजनीय नहीं है। तीर्थंकर का भाव निक्षेप शुद्ध है उनमें तीर्थंकर के गुणों का अभाव नहीं था इसलिए इनके भाव निक्षेप के समान ही नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप भी वंदनीय, नमंसनीय, पूजनीय हैं। ऊपर दिए हुए सूत्र पाठकों का सब जैन संप्रदाय पाठ करते हैं और मानते हैं। फिर वे चाहे मूर्ति पूजक हों अथवा मूर्ति विरोधक हों। अतः वे इन सूत्र पाठों के द्वारा "सब तीर्थंकरों (जिनों) के चारों निक्षेपों को बड़ी श्रद्धा भक्ति से वन्दना नमस्कार करते हैं तथा कीर्तन आदि भी करते हैं, यह बात स्पष्ट है। ___ क्या जड़ वस्तु का आत्मा पर प्रभाव होता है ? मूर्ति मान्यता के विरोधी कहते हैं कि जड़ वस्तु का आत्मा पर क्या प्रभाव होने वाला है और यदि उसका कोई प्रभाव नहीं तो आत्मा को क्या लाभ-हानि होने वाले हैं ? अतः जड़ मूर्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । समाधान-श्री दशवकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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