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________________ 157 यह द्रव्य जिन है । (4) भाव जिन केवलज्ञान पाकर समवसरण में चौतीस अतिशय पैंतीस गुणों वाली वाणी और बारह पर्षदा सहित भाव जिन है । (आ) अर्थात् – ( 1 ) नाम साधु - साधु के नाम को कहते हैं । (2) स्थापना साधु --- साधु के चित्र मूर्ति आदि को कहते हैं । अथवा आत्मा में साधु की गुण अवस्था न होने पर भी उसके वेश अथवा आकृति में साधु के गुणों की कल्पना करके साधु मानना, कहना। ( 3 ) द्रव्य साधु - भूत काल में हो गए अथवा भविष्य में होने वाले साधु की आत्मा में साधु अवस्था का संकल्प करके साधु मानना या कहना । ( 4 ) भाव साधु — भाव से आत्मा में साधु के गुण तथा द्रव्य से साधु वेश सहित साधु को साधु मानना कहना । इन चारों निक्षेपों को स्वीकार किए बिना कार्य की सिद्धि सम्भव नहीं है । यदि भावनिक्ष ेप शुद्ध है तो ही उनके चारों निक्षेप वन्दनीय हैं । इस बात को एक दो उदाहरण देकर समझाते हैं : 1. श्री भगवती सूत्र में प्रारम्भ में श्री गणधरदेव ने ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है। ग्रंथों को ज्ञान मानकर नमस्कार किया जाता है । यह स्थापना निक्षेप की दृष्टि से । क्योंकि लिपि भी जड़ है और शास्त्र भी कागजादि और स्याही से निर्मित होने से जड़ हैं, पर ज्ञान चैतन्य है । इसका भाव निक्षेप शुद्ध है इसलिए इसका स्थापना निक्षेप भी शुद्ध है । इसीलिए गणधरदेव ने लिपि को नमस्कार किया है क्योंकि वह निक्षेप शुद्ध होने से पूजनीक और वंदनीय है । यह हुआ स्थापना निक्षेप को वंदन । 2. लोगस्स के पाठ में चौबीस तीर्थंकरों के नामों को नमस्कार करते हैं । वर्तमान में इन चौबीस तीर्थंकरों में से कोई भी विद्यमान नहीं है । तीर्थंकर अवस्था प्राप्त करने के बाद वे सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए उनका नाम उच्चारण करके कीर्तन करते हैं। यह नाम निक्ष ेप की अपेक्षा से वंदना की गई है। क्योंकि तीर्थंकर का भावनिक्ष ेप शुद्ध है इसलिए उनका नाम निक्ष ेप भी शुद्ध होने से वन्दनीय है । यह हुआ नाम निक्षेप को वन्दन । 3- दूसरी बात यह है कि लोगस्स के पाठ में चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया है । इनमें से वर्तमान में कोई भी तीर्थंकर विद्यमान नहीं है । वे सिद्ध अवस्था में विद्यमान हैं। इसलिए वे वर्तमान में भाव जिन नहीं हैं । यदि कहो कि वर्तमान में मोक्ष में चौबीस तीर्थंकरों की आत्माएं विद्यमान हैं, हम उन्हें नमस्कार करते हैं और उन्हीं का कीर्तन करते हैं । परन्तु वे तो सिद्ध हैं । अरिहंत और सिद्ध एक अवस्था नहीं है । दोनों अवस्थाएं अलग-अलग हैं । श्री पंचपरमेष्ठी नवकार मंत्र में अरिहंतों को और सिद्धों को अलग-अलग माना है और अरिहंतों को पहले नम्बर पर तथा सिद्धों को दूसरे नम्बर पर नमस्कार किया गया है। तथा भविष्य में होने वाले पद्मनाभ आदि (श्रेणिक आदि के जीवों) को तीर्थंकर मानकर भी नमस्कार कीर्तन आदि करते हैं किन्तु इनकी आत्माओं में अभी अरिहंत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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