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________________ 156 'पूर्व या उत्तर अवस्था रूप हो वह द्रव्य निक्षेप है । भाव निक्षेप की पूर्व अवस्था अथवा उत्तर अवस्था को वर्तमान में मान लेना द्रव्य निक्षेप है । जैसे कि श्रेणिक राजा, रावण, कृष्ण भविष्य में तीर्थंकर होंगे, उन्हें वर्तमान में तीर्थंकर कहना-जानना-मानना और भूतकाल में हो गए भगवान महावीरादि तीर्थंकरों को वर्तमान तीर्थकर मान कर स्तुति करना सिद्धों को अरिहंत मान कर तीर्थंकर अवस्था की उपासना करना सो द्रव्य निक्षेप है अथवा महावीर के जीव को ऋषभ के पौत्र और भरत के पुत्र मारीचि के भव में भविष्य में होने वाले महावीर के जीव में तीर्थंकर अवस्था को लक्ष्य में रख कर भरत चक्रवर्ती का मारीचि को नमस्कार करना, यह द्रव्य निक्षेप से तीर्थंकर की उपासना है। उनकी आत्मा की उपासना द्रव्य निक्षेप से हुई । एक ऐसा व्यक्ति जो वर्तमान में साधु नहीं है पर या तो वह साधु हो चुका है या आगे साधु बनने बाला है, उसे वर्तमान में साधु कहना-जानना सो द्रव्य निक्षेप है। स्थापना निक्षेप और द्रव्य निक्षेप में भेदस्थापना निक्षेप में बताना मात्र आरोपित है, उसमें वह मूल वस्तु कदापि नहीं है, वह वहाँ कदापि नहीं हो सकती और द्रव्य निक्षेप में वह (मूल वस्तु) भविष्य में प्रगट होगी अथवा भूतकाल में थी। दोनों के बीच समानता इतनी है कि वर्तमान काल में वह दोनों में विद्यमान नहीं है और इतने अंश में दोनों में आरोप है। (4) भाव निक्षेपकेवल वर्तमान पर्याय की मुख्यता से जो पदार्थ वर्तमान जिस दशा में है उसे उस रूप वाली कहना, जानना सो भाव निक्षेप है । अथवा जिस अर्थ में शब्द की व्युत्पत्ति व प्रवृत्ति का निमित्त बराबर घटित हो, बह भाव निक्षेप है । जैसे एक ऐसा व्यक्ति जो सेवक का काम करता है सो भाव निक्षेप है । जैसे सीमंधर स्वामी भगवान वर्तमान तीर्थंकर के रूप में विराजमान हैं। उन्हें तीर्थकर कहना, जानना और भगवान महावीर को वर्तमान में सिद्ध मानना कहना, जानना सो भाव निक्षेप है। अथवा जब तीर्थकर भगवान समवसरण में विराजमान हों, चौतीस अतिशय और पैंतीस गुणवाली वाणी एवं बारह प्रकार की पर्षदा सहित हों वह भाव जिन हैं । अथवा साधु भाव से साधु गुणों का धारक हो और बाहर से साधु के वेश में हो, वह भाव साधु है । ऐसा जानना, कहना भाव निक्षेप है।। "नाम जिणा जिण नामा, ठवण जिणा पुण जिणिद पडिमाओ, दव्वजिणा जिण जीवा, भाव जिणा समवसरणत्था।" (अ) अर्थात्-(1) नाम जिन उनके नाम को कहते हैं। (2) स्थापना जिन उनकी प्रतिमा आदि को कहते हैं । (3) द्रव्य जिन (भूतकाल में हो गए अथवा भविष्य काल में होने वाले) जिन की आत्मा को कहते हैं । यानी चाहे जिन होकर पूर्ण कर्मों को क्षय कर सिद्धावस्था में मोक्ष में विराजमान है। अथवा जिन होने से पहले श्रेणिक कृष्ण, रावण की आत्माएं नरक में हैं तो भी उन्हें वर्तमान में जिन मानना या कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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