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________________ 159 "चित्त भित्तीणं णिज्जाए नारि वा सुलंकियं मक्खरमिव दटू दिठिं पडि समाहरे॥" अर्थ-(साधु) को नारी के चित्र वाली दीवाल को नहीं देखना चाहिए • क्योंकि स्त्री के चित्रादि को देखना विकार उत्पन्न का हेतु है। इसलिए जैसे सूर्य के सामने देख कर दृष्टि पीछे खींच लेते हैं, वैसे ही चित्र को देख कर दृष्टि को वहां से फौरन हटा लेना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि स्त्री विकार का निमित होने से उसका चित्र भी मन में विकार लाने का कारण बन सकता है इसलिए ब्रह्मचारी साधु को उसे नहीं देखना चाहिए। यदि अचानक उस पर दृष्टि पड़ भी जावे तो उसे शीघ्र ही पीछे खींच लेनी चाहिए । यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सिद्ध हैं । अतः जड़ वस्तु का प्रभाव आत्मा ' पर अवश्य होता हैं । इस बात को मूर्ति विरोधी भी यथावत स्वीकार करते हैं। जैसे स्त्री का चित्र विकार का कारण है वैसे वीतराग की प्रतिमा के दर्शनों से भी आत्मा पर अवश्य प्रभाव पड़ता है। जिससे विचक्षण बुद्धिमान भव्य जीव विवेकी होकर अपने में वीतरागता के भाव लाकर कर्ममल को भस्म कर शाश्वत सुख मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। 2. जैन शास्त्रों में कहा है कि यदि कोई बच्चा मार्ग में लकड़ी को घोड़ा मान कर खेल रहा हो और जैन साधु उधर जा निकले तथा उसके मार्ग में इस घोड़े से रुकावट आती हो तो उसे बालक को यह कहना चाहिए कि "बच्चे ! अपना घोड़ा रास्ते -सि हटा ले, रास्ता छोड़ दे ताकि मैं यहां से निकल जाऊं।" किन्तु साधु उस बच्चे को • लकड़ी हटा ले ऐसा न कहे । यदि उस किये हुए कल्पित घोड़े को साधु लकड़ी हटा ले कहे तो उस साधु का मृषावाद (झूठ) बोलने का दोष लगता है । इस बात को अपने आपको जैन मानने वाले मूर्ति विरोधक भी स्वीकार करते हैं । ___अब ज़रा सोचिए कि इस जड़ लकड़ी में घोड़ापन क्या है ? न तो उसमें घोड़े की आकृति है और न उसमें घोड़े की आत्मा ही है । जड़ लकड़ी ही तो है। यह घोड़े की इत्वरिका-अतदाकार-असद्भाव स्थापना ही तो हैं । स्थापना से ही तो लकड़ी * को घोड़ा कहने के लिए शास्त्रकारों ने उसे सत्य की कोटि में स्वीकार किया है ? क्या मति के विरोधी जड़ पूजा नहीं करते? मूर्ति की उपासना के विरोधी जिनप्रतिमा को वन्दन, पूजन, भक्ति का विरोध करते हैं, उन्हें इसमें क्या आपत्ति है इसका विवेचन करके हम ने विस्तार से बतला *दिया है। स्पष्ट है कि उनकी मान्यता कितनी निस्सार और भ्रांतिपूर्ण है। इस विषय में आगे चलकर और भी प्रकाश डालने का प्रयास किया जाता रहेगा। जिन प्रतिमा के माध्यम से तीर्थकर की भक्ति का निषेध करके इस मत के साधु मान अपनी भक्ति कराने का प्रचार व समर्थन करते हैं । वे अपने माने हुए जड़ साधु वेष को, अपने जड़ शरीर और उपकरणों को भी पूज्य मानकर उनकी भी अविनय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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