SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 150 रूप में देखता है । स्त्री लम्पट उसे कुदष्टि से देखता है। एक महिला पुत्र की दष्टि में पूज्य है और वही महिला लम्पट की दृष्टि ने काम तृप्ति का साधन है । इस बात को विशेष स्पष्ट करने के लिए यहां एक दृष्टांत उपयोगी होगा खोया-पाया ___ एकदा कुछ जैन साध्वियां विहार करते हुए एक नगर में पधारी । वहां के श्रीसंघ की तरफ़ से ज़ोरदार विनती होने से उन्होंने उसी नगर में वर्षावास (चौमासा) किया। वहां की राजकन्या को उनके सम्पर्क में आने से संसार से वैराग्य हो गया। चतुर्मास उठने के बाद माता-पिता की आज्ञा लेकर उसने भागवती दीक्षा ग्रहण की। साध्वी के पांच महाव्रत स्वीकार कर अणगार बनी । वहाँ से विहार कर अन्यत्र जाने केलिए प्रस्थान किया। रास्ते में रात हो जाने से सब साध्वियों ने एक बड़े वृक्ष के नीचे रात्री विश्राम लिया। उस वृक्ष के कोटर में एक विषैले सांप का आवास था । उसने राजकुमारी साध्वी को डंक मारा। साध्वी का स्वर्गवास हो गया। काल के आगे किसी का जोर नहीं, कौन जानता था कि यह सोलह वर्षिया राजकन्या नवदीक्षिता साध्वी इतनी अल्प अवस्था में कालकल्वित हो जाएगी। साध्वियां इस मृत देह को बोसरा कर (वहीं छोड़कर) प्रातः होते ही आगे को रवाना हो गईं। इतने में इधर से एक बूढ़ा बाबा संन्यासी आ निकला। उस शव को देखकर उसके शरीर में रोमांच हो आया। वहीं उसके कदम रुक गये । वह आँखें गाड़कर बड़े ग़ोर से उस शक को एकटक से देखने लगा मन ही मन बुड़बड़ाने लगा और गम्भीर चिंतन में पड़ गया। "अहा ! कितनी सुन्दर है यह युवती ! कोमल सुधड़ सम्पूर्ण अंगोपांग, लावण्यमय शरीर, पूरा जोबन, इसकी आकृति से ऐसा अनुमान होता है कि यह कन्या किसी समृद्ध सुखी परिवार की है। संभवतः राज्यकन्या हो तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। धिक्कार है इसको और धिक्कार है इसके यौवन को कि सब प्रकार की भोगोपभोग की सामग्री को पाकर भी सांसारिक सुखों से वंचित रही और संन्यास लेकर जंगल में भटक मरी, प्राणों से भी हाथ धो बैठी । धिक्कार है इसके माता-पिता को कि जिन्होंने इसका विवाह कर किसी का घर नहीं बसाया और संन्यास दिलाकर घर से निकाल बाहर किया । इसे देखकर मेरा मन चाहता है कि इसे अपने शरीर से लिपटा लूं । पर क्या करूं यह तो शव है, मिट्टी की ढेरी है। मैं इससे अपनी कामवासना की तृप्ति न कर पाऊंगा। यदि यह जीवित मुझे मिल जाती तो मैं इसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर चिरकाल तक संसार सुख अवश्य भोगता । इस प्रकार विचारों की उधेड़बुन में अपने भाग्य को कोसता हुआ डगमगाते कदमों से वहां से रवाना हो गया। कुछ देर बाद कोई दूसरा सन्यासी उधर आ निकला । उसकी निगाह उस शव पर पड़ते ही वह चौंक पड़ा। कहने लगा-ओहो ! कितनी सुन्दर, नवयौवना, कोमल और सम्पूर्ण अंगोपांग वाली यह ललना ! आकृति से भोली-भाली। ऐसा मालूम होता है कि सन्यासिनी के वेश में कोई राजकन्या है । भर जवानी में संसार को असार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy