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________________ 151 जानकर सब प्रकार के भोगोपभोगों का त्याग कर सन्यास ग्रहण करके जगत के भोगग्रस्त प्राणियों के सामने इनकी असारता का आदर्श उपस्थित किया। कौन जानता था कि यह इतनी जल्दी काल का ग्रास बन जावेगी । हे देवी ! धन्य है तुम्हें और धन्य है तुम्हारे माता-पिता को, जिन्होंने सांसारिक भोगोपभोगों को पापजन्य दुर्गति का कारण और असार जान कर उनका त्याग कर सन्यास धारण किया कराया। धिक्कार है मुझे कि घर गृहस्थी तथा धन-दौलत, परिवारादि का त्याग कर सन्यास लेकर तथा इतनी वृद्धावस्था हो जाने पर भी काम-विकारों को मन से न निकाल पाया, उन पर विजय न पा सका । बाह्य सन्यास से आत्मा का कल्याण कदापि सम्भव नहीं ऐसा महापुरुषों का कहना है । मेरे दांत गिर गए हैं मुख से लार टपकने लगी हैं। शरीर जर्जरित होने आया है पर सच्ची वैराग्य भावना का प्रादुर्भाव आज तक न कर पाया । अब भी चेत जा, विकराल काल मुँह फाड़े तेरी तरफ़ दौड़ा चला आ रहा है। ओह ! कैसी दयनीय दशा है मेरी । बार-बार धिक्कार है मुझ पापात्मा को। ऐसे विचारों की उधेड़बुन में लाठी को टेकता हुआ आगे चल पड़ा। अब जरा सोचिए कि उस शवमें कोई जीवित आत्मा तो विद्यमान नहीं थी। एक युवती की जड़ आकृति के सिवाय और तो कुछ नहीं था उसे देख कर पहले ने दुर्भावना से घोर पाप कर्मों का बन्धन कर लिया और दूसरे ने अपनी आत्मा की आलोचना से कर्मों की निर्जरा कर डाली और आगे को ऐसे खोटे विचारों का सर्वथा त्याग कर निर्दोष संन्यास धर्म का पालन करते हुए सच्चा पथगामी बना । जैसी जिसकी भावना वैसा उसे फल । एक ने अपनी आत्मा का पतन किया। खो गया, बाज़ी हार गया। दूसरे ने पा लिया, अपनी आत्मा को जागृत करके चला गया। इसी प्रकार यदि किसी महानुभाव को जिनप्रतिमा को देखकर द्वेष होता है तो उसके पतन का कारण उसके अन्दर रहा हुआ द्वेष ही है । उसके खोटे विचार ही हैं। उसकी दुर्भावनाएं ही हैं। न कि वीतराग सर्वज्ञ प्रभु की मूर्ति । कहा भी है कि "यादशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादशी।" अर्थात्-जैसी जिसकी भावना होती है वैसी ही उसे सिद्धि भी होती है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि "जिसके मन भावना जैसी, प्रभु मरत तिन देखी तैसी।" इस प्रकार तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमा के पास जाकर अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले केलिए जरूरी है कि उसके मन में प्रभु के प्रति-अटूट श्रद्धा हो, हृदय भक्ति से परिपूर्ण हो। और आत्मकल्याण की भावना हो तभी कुछ पा सकेगा, बरना नहीं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए जैनाचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर अपने द्वारा रचित 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में स्पष्ट फ़रमाते हैं कि आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्तया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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