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________________ 149 से ज्ञान शुद्धि, दर्शन शुद्धि और चारित्र शुद्धि संभव है । कहा भी है कि "यत् संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् । धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमहाहम् ॥" 2. असल में मूर्ति की पूजा नहीं की जाती, पूजे जाते हैं परमात्मा के गुण जिनमूर्ति द्वारा तो परमात्मा के गुणों का स्मरण हो आता है। उनके विराट स्वरूप के दर्शन हो पाते हैं । मूर्ति तो परमात्मा का तथा उनके गुणों की पूजा तथा भक्ति का आधार है। उपासना का माध्यम है। 3. तीर्थंकर प्रभु जब ध्यानावस्था में होते हैं, मौनावस्था में होते हैं, उस समय उनका दर्शन करने वाले को प्रभू के प्रवचन (उपदेश), शंका समाधान या प्रश्नों का समाधान अथवा प्रश्नों के उत्तर आदि कुछ भी प्राप्त नहीं होते तो भी भगत उनके दर्शन करके अपने आप को कृतकृत्य मानता है। इसी प्रकार जिनप्रतिमा के दर्शन करने वाला श्रद्धालु भगत कृतकृत्य हो जाता है। ___4. तीर्थंकर प्रभु जब विद्यमान होते हैं उस समय भी ऐसे लोग मौजूद थे जिन को उन्हें देखकर द्वेष उत्पन्न होता है, कषायों का अविर्भाव हो आता है। प्रभु को उपसर्ग करनेवाले भी थे, प्रभु के विरोधी भी थे । प्रभु महावीर से प्रतिबोध पाकर, उनसे दीक्षा लेकर और साक्षात् उनसे आगमों का ज्ञान प्राप्त करके भी जमाली आदि जैसे निन्हव शिष्यों ने उनका विरोध किया, उनकी अवहेलना की, उनका प्रतिपक्षी बन कर अपना अलग मत स्थापन किया अपने आपको तीर्थकर होने की उद्घोषणा भी कर डाली । गोशाला जैसों ने अपने आपको आपका शिष्य होने की उद्घोषणा की, आपसे ही शिक्षा पाकर आपका प्रतिपक्षी बना और आप पर तेजोलेश्या छोड़ी। ऐसे ही अन्य निन्हवों ने भी प्रभु का अविनय, अपमान, आशातना अवहेलना करके दुर्गति पाई तथा गौतम आदि गणघरों, आनन्द आदि श्रावकों, चन्दनबाला आदि जैसी साध्वियों, रेवती जैसी श्राविकाओं ने प्रभु की भगती से सद्गति तथा निर्वाण की प्राप्ति की। प्रभु से द्वेष करने वालों को पाप और मिथ्यात्व का उदय था और उनके प्रति भक्ति के भाव रखने वालों को सम्यक्त्व तथा पुण्य का उदय था। इसी प्रकार जिनप्रतिमाओं को देखकर जिसे द्वेष उत्पन्न होता है अथवा कषाय का अविर्भाव हो आता है, जिसके भाव बिगड़ जाते हैं, उसको पाप और मिथ्यात्व को उदय का कारण हैं। इसलिए वे पाप कर्मों का उपार्जन करके दुर्गति के भागी बनते हैं । इन में न तो प्रभु का दोष है और न उनकी प्रतिमा का दोष है । दोष है तो उसके अपने अन्तर की दुर्भावना का । अर्थात् दीपक के तले के अन्धेरे के लिए प्रकाश का दोष नहीं दीपक का अपना ही दोष है जिन्हें जिनप्रतिमा के दर्शन कर भक्ति के भाव उत्पन्न होते हैं वे पुण्यात्मा निकटभवि हैं । कोई वस्तु अच्छी अथवा बुरी नहीं होती। जिसकी जैसी भावना होती है सामने वाली वस्तु उसे वैसी ही दिखालाई देती है। जैसे एक महिला है, बेटा इसे माता के रूप में देखता है । भाई उसे बहन के रूप में देखता है। बाप उसे बेटी के रूप में देखता है । पति उसे पत्नी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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