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मूर्ति का अर्थ है-आकृति, रूप, शक्ल, नक्शा, चित्र, फ़ोटो, प्रतिबिंव, प्रतिमा आदि । वैज्ञानिक, विद्यार्थी, इंजीनियर, अध्यापक आदि तथा सांसारिक, व्यावहारिक, धार्मिक इत्यादि चाहे कोई भी व्यक्ति अथवा कार्य हो; बिना मूर्ति के न तो इतना ज्ञान ही हो सकता है और न किसी का काम ही चल सकता है । छोटे से छोटा बालक तथा बड़े से बड़ा अध्यात्मयोगी कोई भी क्यों न हो उसे अपनी अभीष्ट सिद्धि केलिए सर्व प्रथम मूर्ति की आवश्यता रहती है । इस विषय में प्राचीन तथा वर्तमान विद्वानों के दो मत नहीं हैं।
अध्यापक चित्रपट (नक्शे Map) से विद्यार्थी को भूगोल-खगोल का ज्ञान कराता है । डाक्टर जड़ अस्थि पिंजर अथवा इनके चित्रों से जीवित मानव के रोगों का ज्ञान तथा चिकित्सा का अभ्यास कराता है । इंजीनियर मानचित्रों के आधार से नगरों इमारतों, सड़कों आदि का निर्माण करता है। वैज्ञानिक इसीके आधार से बड़ी-बड़ी वस्तुओं की गहराइयों को पा लेता है। आत्म शान्ति का अभिलाषी जड़ शास्त्र को पढ़ कर आत्मज्ञान प्राप्त करता है। साधक और योगी को भी अपने चित्त को स्थिर और एकाग्र करने के लिए मूर्ति आदि का सहारा लेना पड़ता है। मुमुक्ष आत्माओं का अन्तिमध्येय जन्म-मरण आदि दुःखों का अन्त कर अक्षय सुख प्राप्त करने का होता है। परन्तु इस महान उद्देश्य की पूर्ति केलिए सर्वप्रथम चंचल मन की एकाग्रता, इन्द्रियों का दमन, कषायों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य है। ऐसी अवस्था प्राप्त करने के लिए एक मात्र निमित्तकारण तीर्थंकर प्रभु की ध्यानस्थित, शान्तमुद्रा, प्रशमरसनिमग्न मूर्ति ही है। फिर वह मूर्ति चाहे पाषाण की हो, चाहे काष्ठ, धातु, अथवा अन्य किसी वस्तु से निर्मित हो। उपासक का लक्ष्य तो प्रतिमा द्वारा परमात्मा के सच्चे स्वरूप का चिंतन कर अपने वास्तविक शुद्ध स्वरूप को पाना है ।
जड़ मति से लाभ शंका-1-हम तो मात्र भावनिक्षेप को ही मानते हैं बाकी के तीन निक्षेपों को नहीं मानते । 2-जड़ प्रतिमा की भक्ति उपासना पूजा आदि से कोई लाभ नहीं। 3-वह न तो हमें उपदेश दे सकती है और न ही हमारी शंकाओं का समाधान कर सकती है। 4-उसमें न तो कोई ज्ञान-दर्शन-चरित्र आदि गुण हैं और न ही उसमें चैतन्यमय आत्मा है। 5-न तो हमें पाप के गर्त में गिरतों को बचा सकती है और न ही धर्म मार्ग में लगा सकती हैं। ऐसी जड़-निरुपयोगी मूर्ति की आराधना से कोई लाभ तो है ही नहीं 'दूसरी बात यह है कि जब हमें यह मालूम है कि भगवान तो मोक्ष पधार चुके हैं तब उनकी मूर्ति को साक्षात् भगवान समझकर अपने आपको धोखा कैसे देवें? और मन कसे स्वीकर करे कि यह परमात्मा तीर्थंकर है ? मूर्ति को देखने से हमारे भाब बिगड़ जाते हैं । कषायों का अविर्भाव हो जाता है । अतः इसे मानने से हमारा पतन है।
___ समाधान -1-जैसे साधु के संयम के साधन वस्त्र, पात्र, उपकरण आदि अजीव है इनसे साधु के चारित्र-संयम की साधना होती है वैसे ही जिनप्रतिमा की स्थापना
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