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'भव की प्राप्ति हानिकारक ही रहेगी पर हमारे लिए तो मनुष्य भव और धर्मध्यान "सब कुछ आत्मकल्याण में अवश्य साधन हैं ।
18-परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दान देना, भगवान का नाम जपना, उनकी पूजा पाठ करना, धर्मध्यान करना, या मनुष्य का शरीर पाना दूसरों के लिए भी बुरा है या आवश्यकता नहीं है । जिन्हें इनकी जरूरत है उनके लिए तो बहुत कुछ है।
19-इससे यह स्पष्ट है कि जिस-जिस अवस्था में जिस-जिस वस्तु का त्याग "किया गया है वह पाप समझ या मानकर नहीं किया गया। परन्तु उस-उस स्थिति में वह आवश्यक न होने से ही उनका त्याग किया गया है । साधु अवस्था में भी जिन प्रतिमा की द्रव्य पूजा की जरूरत न होने से ही साधु उसका त्याग करता है। पर पाप के कारण अथवा पाप समझ कर द्रव्यपूजा का त्याग नहीं करता।
20-तथापि जब तक साधु छठे स्थान में प्रमत्त अवस्था में रहता है तब तक जिनप्रतिमा की भाव पूजा तो करता ही है क्योंकि आत्मविकास के लिए भाव पूजा परम उपयोगी है। इसीलिए तो जैनागमों में श्रावक और साध के जिनप्रतिमा के दर्शन-वन्दन करने का प्रति दिन अनिवार्यता का निर्देश किया है। यदि वे जिन प्रतिमा की उपासना नहीं करते तो उन्हें प्रायश्चित आता है। इस बात का उल्लेख हम आगम पाठों के साथ पहले कर आए हैं।
हिंसा के तीन प्रकार साधू अथवा श्रावक के जितने भी उत्तम कार्य हैं उनमें भी हिंसा रही हुई है। परन्तु यह हिंसा कर्म बन्ध का कारण नहीं है । हिंसा तीन प्रकार की है। 1. हेतु 2. स्वरूप और 3. अनुबन्ध ।
1. संसार के कार्यों की सिद्धि के लिए होने वाली हिंसा हेतु हिंसा है। 2. धर्मकार्यों में होने वाली हिंसा-अनिवार्य हिंसा स्वरूप हिंसा है । 3. मिथ्यादृष्टि आत्मा से होने वाली हिंसा-अनुबन्ध हिंसा है।
इनमें अनिवार्य -स्वरूप हिंसा कर्मबन्ध का कारण नहीं है इस का खुलासा हम पहले भी कर आए हैं।
जिस-जिस क्रिया में हिंसा हो, वह-वह क्रिया यदि त्याज्य ही हो तो सुपात्र दान मुनि विहार, दीक्षा महोत्सव, साधर्मी वात्सल्य, दानशाला, आदि सब धर्म कार्य भी त्याज्य हो जावेंगे। परन्तु श्री आवश्यक सूत्र, श्री भगवती सूत्र, श्री आचारांग सूत्र, श्री ज्ञाताधर्भकथांग सूत्र आदि आगमों में मुनि को दिया हुआ सुपात्र दान, साधु विहार, साधर्मी वात्सल्य आदि धर्म कार्य करने का साधु और श्रावक दोनों के लिए फरमया है।
(1) श्री उववाई सूत्र में राजा कोणिक के किये हुए प्रभु के वन्दन महोत्सव का विस्तृत वर्णन है।
(2) श्री भगवती सूत्र में उदायन राजा के किए हुए भगवान के स्वागत का तथा तुंगिया नगरों के श्रावकों द्वारा किए मए जिनपूजा का वर्णन है।
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