SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 142 (3) अप्रमत्त साधु 7 से 10 गुणस्थानवर्ती होने से एक दम अन्तदृष्टि होने के कारण ‘उसे बाह्य आलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए उसे द्रव्य और भाव दोनों 'प्रकार की पूजा की आवश्यकता नहीं रहती । वह तो अन्तान में ही लीन रहते हुए धर्भध्यान द्वारा परमात्मा में तदात्म्य प्राप्त कर लेता है। (4) छद्मस्थ वीतराग साधु 12 गुणस्थानवती होने के कारणवह धर्मध्यान का त्याग कर देता है शोर शुक्लध्यान में -लीन होकर (5) तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है और वह सयोगी केवली स्वयं परमात्मा बन जाता है । अब उसे नामस्मरण, वन्दन, पूजन आदि की भी आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि भव्य जीव की सब साधना परमात्मपद पाने के लिए ही होती हैं। तेरहवें गुणस्थान में परमात्मपद पा लेने के बाद बारह पर्षदाओं के सामने "धर्मोपदेश तो देता ही है । इन्द्रादि उस परमात्मा की पुष्पवृष्टि आदि आठ प्रातिहार्यों द्वारा पूजा करते हैं । नव स्वर्णकमलों पर उनका विहार होता है । इनके आठकों में से चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है बाकी के चार अघातिया कर्मों को क्षय करने के लिए (6) सयोगी केवली योगों का भी निरोधकर शुक्लध्यान ध्याते हुए योगातीत होकर चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है और सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर अशरीरी अवस्था में सिद्ध पद को प्राप्त करके अजर-अमर हो जाता है। (7) चौदहवें गुणस्थान में योगातीत अवस्था में धर्मोपदेश देने का भी त्याग हो जाता है। मन, वचन, काया के योगों का विरोध मात्र पांच हृस्वाक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, ल,) के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतना समय रहने के बाद देह का त्याग कर जीव अशरीरी परमात्मा स्व स्वरूप को प्राप्त कर सिद्ध हो जाता है।। ___16-अतः निश्चित है कि (1) देवता और गृहस्थ मनुष्य को द्रव्य और भाव पूजा दोनों की आवश्यकता है । (2) साधु होने के बाद प्रमत्त अवस्था में भावपूजा की आवश्यकता रहती है, द्रव्य पूजा की नहीं । (3) अप्रमत्त साधु के लिए द्रव्य भाव दोनों प्रकार की पूजा तथा गुरु आदि किसी भी प्रकार के बाह्य आलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती ये अन्तंदृष्टि होकर धर्मध्यान में लीन रहते हैं, उन्हें धर्मोपदेश देने की भी आवश्यकता नहीं रहती। (4) छद्मस्थ वीतराग अवस्था में धर्मध्यान की भी आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए वे धर्मध्यान का त्यागकर शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। (5) सयोगी केवली अवस्था में भगवान के नाम के सहारे की, किसी एकाग्र चिन्तन ध्यानादि, तीर्थंकर को वन्दन नमस्कार की भी आवश्यकता नहीं रहती पर धर्मोपदेश तो देते हैं । (6) अयोगी अवस्था में योगों तथा धर्मोपदेश का भी त्याग कर देते हैं। (7) सिद्धावस्था में शरीर की भी आवश्मकता नहीं रहती। इसलिए शरीर धारण भी नहीं करते। 17-जीव को शुक्लध्यान पाने के बाद धर्मध्यान की आवश्यकता नहीं रहती। सिद्धावस्था प्राप्त करने के बाद देह की भी आवश्यकतान हीं रहती और न वे उसकी कामना करते हैं । शुक्लध्यानी को धर्मध्यान की प्राप्ति और सिद्ध को मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy