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________________ 141 बढ़ता जाता है, जब वह ऊंची श्रेणी में पहुंच जाता है तब वह बिना वर्णमाला को, पट्टी पहाड़ों को याद किए बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ने लग जाता है और बड़े से बड़े अंकगणित को सरलता से हलकर लेता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वर्णमाला पट्टी पहाड़े पढ़ना अनावश्यक हैं, बुरे हैं। जिन्हें उनकी जरूरत है उनके लिए तो बहुत कुछ हैं। 7-चश्मे की जरूरत आंख की कमजोरी से है, जिसकी आंख ठीक है, उसे चश्मे की क्या आवश्यकता? परन्तु आवश्यकता वाले केलिए तो बहुत कुछ है। 8-बुखार की दवा तो बुखार वाले के लिए ही उपयोगी है। तो स्वस्थ के लिए वह किस काम की? परन्तु रोगी के लिए तो वह दवा आशीर्वाद है। 9-इस प्रकार भावस्थ मुनिराज-सर्व परिग्रह त्यागी तथा सचित द्रव्यों के स्पर्श मात्र से भी बचने वाले को ऊंचे पहुंच जाने के कारण द्रव्य पूजा की आवश्यकता नहीं रहती और यदि वे अपनायें तो उन्हें हानि ही होगी। ___10-धर्मोपदेश देना मुनि का धर्म है, पर मौन लेनेवाले मुनि इसलिए धर्मोपदेश नहीं छोड़ते कि उसमें पाप है अथवा अनुचित है बल्कि इसलिए कि वे और भी ऊंची श्रेणी में स्थित है। 11-तपस्या करने वाले मुनि आहार का त्याग यह समझकर नहीं करते कि आहार करने में पाप है बल्कि वे आहार का त्यागकर और भी ऊंची कोटि में जाना चाहते हैं। ___12-ध्यान में लीन मुनिराज यह जानते हुए भी कि मन्दिर जाने में धर्म है परन्तु ध्यान में लीन रहने के कारण महीनों तक इसलिए मन्दिर नहीं जाते कि ऊंची श्रेणी में पहुंच जाने के कारण उससे अधिक लाभाविन्त हैं। 13-लाख-दो लाख को उपार्जन करने वाला व्यापारी सौ-पचास रुपये के उपार्जन को लाभ का काम समझते हुए भी उसे नहीं अपनाता क्योंकि उससे भी अनेक गुणा अधिक लाभ उसे मिल रहा हैं । आखिर काम मुनाफे से है। थोड़ा मुनाफा अधिक मुनाफे के सामने व्यवहार में घाटे का काम ही समझा जाता है। ___14-गृहस्थ धन से समृद्ध है, सुपात्र को दान देता है । मुनि धनादि परिग्रह का सर्वथा त्यागी है । वह सुपात्र दान को पाप मानकर त्याग नहीं करता। पर उसके पास धनादि का अभाव है। इसलिए दान देना उसका धर्म नहीं है। 15--सम्यग्दृष्टि इन्द्रादि देवता चौथे गुणस्थान में होने से तथा गृहस्थ मनुष्य जो पहले गुणस्थान से पांचवें गुणस्थान तक हैं वे जिनप्रतिमा की द्रव्य तथा भावपूजा दोनों के अधिकारी हैं (2) छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त साधु को आलंबन की आवश्यकता है। सब प्रकार के परिग्रह तथा सचित वस्तु के त्यागी होने से द्रव्य पूजा का त्यागी होते हुए भी जिन प्रतिमा के आलम्बन की उसे आवश्यकता है इसलिए उसके माध्यम से वह भावपूजा का अधिकारी हैं। वह प्रभु के नामस्मरण, उनके गुणों का चिन्तन-मनन गुणगान-कीर्तन, ध्यानारूढ़ होकर भावपूजा करके प्रभु में लीनता प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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