SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 140 समाधान 1-गृहस्थ सर्वसंग त्यागी नहीं है। वह सचित अचित परिग्रहधारी है। साधु सर्वसंग त्यागी है, सर्वथा परिग्रह रहित है । गृहस्थों में मिथ्यादृष्टि, अविरति“सम्यग्दृष्टि, और देशविरति क्रमश: जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट तीन भेद हैं। साधु के भी प्रमत्त, अप्रमत्त, छद्मस्थ वीतराग, सयोगी केवली और अयोगी केवली-ये पांच भेद हैं । जीव के दो भेद है—संसारी और सिद्ध एवं संसारी के छह भेद हैं तथा सिद्ध का आत्म स्वभाव स्थित गुणों की अपेक्षा से एक भेद है। ___ अर्थाय--(1) परिग्रहधारी गृहस्थ 1 से 5 गुणस्थान तक । (2) सर्वसंग-सर्वपरिग्रह त्यागी प्रमत्त साधु छठे गुणस्थानवर्ती (3) अप्रमत्त साधु 7 से 10 गुणस्थानवर्ती, (4) छद्मस्थ वीतराग 11, 12 गुणस्थानवर्ती, (5) सयोगी केवली 13 गुणस्थानवी शरीरधारी परमात्मा, (6) अयोगी केवली 14 गुणस्थानवी शरीरधारी परमात्मा । (2) सिद्ध सर्वकर्म रहित अशरीरी परमात्मा हैं। 2-गृहस्थी सचित-अचित दोनों प्रकार के द्रव्यों को रखते हैं और अपने काम में भी लेते हैं। इसलिए इनमें से जिनप्रतिमा की पूजा के योग्य द्रव्यों से स्व कल्याण केलिये जिनप्रतिमा द्वारा परमात्मा की द्रव्य पूजा करते हैं। साधु सर्वसंग सर्वपरिग्रह त्यागी होने से उसके पास द्रव्यों का अभाव है इसलिए वे द्रव्यपूजा नहीं करते । भावपूजा अवश्य करते हैं। 3---गृहस्थ द्रव्यों में आसक्ति कम करने के लिए द्रव्यों से पूजा करते हैं । साध द्रव्यों की आसक्ति से रहित हैं इसलिए उन्हें द्रव्यों की आसक्ति से बचने के लिए द्रव्य पूजा करने की आवश्यकता नहीं है। 4---गृहस्थ सचित द्रव्यों के त्यागी नहीं हैं इसलिए सचित द्रव्यों से द्रव्य पूजा करते हैं। साधु सचित द्रव्यों से सर्वथा त्यागी है इसलिए सचित द्रव्यों से साधु को पूजा करने की आवश्यकता नहीं हैं। ___5-गृहस्थ को द्रव्यों में अनुराग और आसक्ति है। द्रव्य पूजा किसी हद तक परमात्मा में अपना अनुराग उत्पन्न करने के लिये और द्रव्यों में आसक्त प्राणियों की आसक्ति कम करने के लिए हैं । परमात्मा के गुणों के पूर्णरागी और द्रव्यों की आसक्ति से बिल्कुल परे तो भावस्थ साध हैं, वे इतने ऊंचे पहुंच जाते हैं, इतने आगे बढ़ जाते हैं कि द्रव्यपूजा जैसी लाभ पहुंचाने वाली क्रिया तो उनकी उच्चता के सामने निम्न श्रेणी की क्रिया है । अतः द्रव्यपूजा की मुनिराजों को आवश्यकता नहीं है। इसलिए वे उसे नहीं करते और न ही अपनाते हैं। उनके लिए तो जिनप्रतिमा की भावपूजा ही उपयोगी है। इसलिए वे भाव पूजा करते हैं । 6-निश्चित है कि जब बालक पाठशाला पढ़ने जाता है तो वह सर्वप्रथम टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें खींचता है, एक दो की संख्या तो रटता है, धीरे-धीरे अक्षर लिखना पढ़ना सीखता है । वर्णमाला और अंक सीखने के बाद, मात्राएँ, जोडाक्षर तथा पट्टी पहाड़े लि खना पढ़ना, रटना तथा याद करता है । जब वह कक्षाएं पास करता हुआ आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy