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वाले लाभ के सामने नगन्य है। फिरभी जितना कम आरम्भ हो उतना ही श्रेयस्करः है यह बात उपर्युक्त कुएं के दृष्टांत से स्पष्ट हो जाती है ।
श्री रायपसेणीय (राजप्रश्नीय) सूत्र में पूजा के पांच फल कहे हैं
"हियाए सुहाए खमाए निसेयसाए, अणुगामित्ताए भविस्सइ॥"
अर्थात्-श्री जिनप्रतिमा पूजने का फल पूजने वालों को 1-हित के वास्ते, 2-सुख के वास्ते, 3-योग्यता के वास्ते, 4-मोक्ष के वास्ते और 5-जन्मान्तर में भी साथ में आने वाला है।
क्या मंदिर, उपाश्रय, पौषधशाला बनाने में हिंसा है ?
व्यापारी व्यापार करता है, उस में यदि एक लाख रुपया लाभ होता है और दस हजार का घाटा होता है तो उसे लाभप्रद ही कहा जाएगा । श्री आचारांग सूत्र के चौथे अध्ययन के दूसरे उद्देशे में कहा हैं कि यदि देखने में आश्रव का कारण है परन्तु अध्यवसाय शुद्ध है तो कर्म की निर्जरा होती है क्योंकि वहां तो धर्म ध्यान ही होता है और देखने में संवर का कारण है पर यदि अशुद्ध परिणाम हों तब कर्म का बन्ध होता हैं किन्तु इस कार्य में तो अशुद्ध परिणाम को अवकाश ही नहीं।
आप लोग भी स्थानक बनाते हैं, तेरापंथी जैन भवन बनाते हैं । धर्म मानकर ही तो बनाते हैं । आपके साधु स्थानक और जैन भवन बनाने का उपदेश देते हैं, उसमें भी हिंसा तो होती है फिर भी आप और आप के साधु इसमें धर्म मानते हैं । यह बात सत्य हैं ? और इन में आपके साधु-साध्वी निवास भी करते हैं।
यदि मन्दिर, उपाश्रय, पौषधशाला आदि बनाने बनवाने में आप एकांत हिंसा मानते हैं तो आप को कदापि स्थानक, जैन भवन नहीं बनवाने चाहिए।
आपके साधु पुस्तकें भी छपवाते है। अपने फोटो चित्र भी उतरवाते हैं । इनमें प्रत्यक्ष हिंसा है। ऐसा जानते हुए भी, हिंसा को हिंसा समझते हुए भी आप के कथनानुसार सर्वथा अनुचित है। परन्तु जिनप्रतिमा, जिनमन्दिरों, जिनतीर्थों द्वारा अरिहंत भगवान की भक्ति से शुद्ध श्रद्धा (सभ्यग्दर्शन) की प्राप्ति, पुष्टि, दृढ़ता तथा विकास" होता है।
अर्थात् -सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, निर्मल सम्यग्ज्ञान का विकास तथा स्त्र और पर दया रूप परम उत्कृष्ट चारित्र की निर्मलता द्वारा सम्यक्-चरित्र की प्राप्ति होकर रत्नत्रय से आत्मा अलंकृत होती है। जिससे सद्गति तया परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्रावकों के लिये धर्म है तो साधु द्रव्यपूजा क्यों नहीं करता?
कई लोगों का कहना है कि "जिन मूर्ति पूजा" में द्रव्यों के प्रयोग में यदि श्रावकों को धर्म होता तो साधु द्रव्य पूजा क्यों नहीं करते ? क्या उन्हें धर्म करना अभीष्ट नहीं है ? यदि साधुओं को पाप लगता है तो श्रावकों को धर्म कैसे हो सकता
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