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________________ 138 लेकर सत्तरह भेदी आदि पूजा करने तक श्रावकों के शुभ भाव होने से स्व और पर की उत्कृष्ट दया है । इसकी तुलना अन्य किसी भी दया से नहीं हो सकती । इस लिए मुमुक्षु आत्माओं को सदा सर्वदा जिनराज की पूजा करके स्व-पर कल्याण के लिए उद्यमशील रहना चाहिए। प्रश्नव्याकरण सूत्र में पहले संवर द्वार में दया के 60 नाम कहे हैं उनमें 'पूया' अर्थात् 'पजा' को भी दया कहा है। तीयंकर प्रभु वीतराग है इसलिए उनका अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है, अर्थात् न तो वे अपनी पूजा से प्रसन्न होते हैं और वीतद्वेष होने से निन्दा से अप्रसन्न भी नहीं होते । अर्थात् न तो पूजा से आप प्रसन्न होते हैं और न निन्दा से आप अप्रसन्न ही होते हैं । फिर भी आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पाप की कालिमा से बचाता है। यह मूर्ति पूजा का उद्देश्य है। (1) कहने का आशय यह है कि अरिहन्त-तीर्थंकरदेव की पूजा करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है। इसलिए पूजा करते समय उन्हीं का आलम्बन किया जाता है। जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या तो मोक्ष प्राप्तकर लिया है या जो अरिहन्त अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। यहां यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना राग के नहीं होते और राग संसार का कारण है, इस लिए देवपूजा को आत्मशद्धि में प्रयोग कैसे माना जा सकता है ? समाधान यह है कि जब तक सराग अवस्था है तब तक जीव को राग की उत्पत्ति होती ही है । यदि वह राग लौकिक प्रयोजन की सिद्धिः के लिए होता है उस से संसार की वृद्धि होती है। किन्तु अरिहंत आदि स्वयं राग और द्वेष से रहित होते हैं । लौकिक प्रयोजन से उनकी पूजा की भी नहीं जाती है, इसलिए उन की पूजादि के निमित्त से होने वाला राग मोक्ष मार्ग का प्रयोजक होने से प्रशस्त माना गया है। दिगम्बरीय बसुनन्दी कृत मूलाचार में भी कहा है कि जिनेन्द्र देव की भक्ति करने से पूर्व संचित सब कर्मों का क्षय होता है । आचार्य के प्रसाद से विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं। ये संसार तारने के लिए नौका के समान हैं । अरिहन्त, वीतरागधर्म, द्वादशांग-वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साधु में जो अनुराग करते हैं उनका वह अनुराग प्रशस्त होता है। उनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करने से सब अर्थों की सिद्धि होती है। इसलिए भक्ति राग पूर्वक मानी गयी है। किन्तु यह निदान (नियाणा) नहीं है। निदान सकाम होता है और भक्ति निष्काम । यही इनदोनों में अन्तर है। (2) आचार्य कहते हैं कि द्रव्य पूजा करने वाले को जो थोड़ा पाप लगता भी. है तो भी पुण्य तथा कर्मों की निर्जरा बहुत है, इसलिए यह थोड़ा पाप दोष कारक नहीं है। जैसे कि समुद्र में विष की कनिका अथवा बिन्दु मात्र दोष पैदा नहीं कर सकतीं। आचार्य का उक्त वचन द्रव्यपूजन में होने वाले आरम्भजन्य पाप को लक्ष्य में रखकर है। मंदिर निर्माण, मूर्ति निर्माण, उनकी प्रष्तिठा विधि, द्रव्यपूजा, अभिषेक आदि का आरम्भ; ये सब लेश मात्र सावद्य का कारण हैं जोकि द्रव्यपूजा से प्राप्त होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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