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(3) श्री विपाक सूत्र में सुबाहु कुमार का वर्णन है वहां मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में रहे हुए सुबाहु कुमार द्वारा किए हुए सुपात्रदान से उसे पुण्यबन्ध तथा परित्तसंसारी (संसार का अन्त करके मोक्ष पदाधिकारी) बतलाया है। यदि हिंसा के योग से केवल अधर्म ही होता हो तो सुबाहु कुमार को पुण्यबन्ध तथा परित्त संसारी होने की प्राप्ति कैसे सम्भव हई ? सच्ची बात तो यह है कि जैसे सुपात्रदान है वैसे ही जिनपूजा भी पुण्यबन्ध तथा मोक्ष का कारण होती है ।
(4) श्री जिनपूजा तथा सुपात्रदान आदि धर्मकार्यों में जो आरम्भ होता है वह सदारम्भ है और उसके योग से संसार के दूसरे असदारभों से निवृति मिलती है, यह बहुत बड़ा लाभ है। जो लोग धन-दौलत, कुटुम्व-कबीले, जमीन-जायदाद आदि असदारम्भों से निवृत्त नहीं हुए, उनके लिये दान, देवपूजा, साधर्मीवात्सल्य आदि सदारम्भ हितकारी हैं और करने योग्य हैं।
(5) श्री रायपसेणी सूत्र में श्री पार्श्वनाथ सन्तानीय) श्री केशीकुमार आचार्य ने परदेशी राजा को असदारम्भ त्याग करने को कहा है। परन्तु सदारम्भ को त्याग करने को नहीं कहा।
(6) सदारम्भ में दो गुण हैं (1) जहां तक सदारम्भ में लगा रहेगा । वहां तक असदारम्भ हो नहीं सकता। (2) सदारम्भ में जो द्रव्य, समय, शक्ति आदि व्यय होते हैं उनसे असदारम्भ नहीं होगा।
(7) धर्म कार्य करते समय प्राणों का घात करने की बुद्धि नहीं होती परन्तु रक्षा करने की बुद्धि रहती है। स्वरूप हिंसा तेरहवें गुणस्थान (केवली अवस्था) तक भी टल नहीं सकती । तो भी इसको केवलज्ञानादि गुणों की प्राप्ति में प्रतिबन्धक नहीं माना गया ।
(8) हेतु हिंसा और अनुबन्ध हिंसा त्याज्य है । क्योंकि ये संसार के हेतुभूत हैं। श्री आचारांग सूत्र आदि आगमों में अपवाद रूप से हिंसादि का सेवन करने वाले मनियों तथा समुद्रादि के जल में अपकायादि की विराधना होने पर भी शुभध्यानारूढ़ मुनियों को केवलज्ञान और मुक्ति प्राप्त होने के विवरण हैं। संयम शुद्धि के लिये आवश्यक साधु विहार के समान ही श्री जिनमक्ति आदि में होने वाली हिंसा आगमों में कर्मबन्ध का कारण नहीं मानी गयी।
(9) श्री जिनशासन स्याद्वाद गर्भित है सुविवेक पुर्वक आशय भेद से हिंसा भी अहिंसा बन जाती है। जिससे आत्मभावों का हनन हो वह हिंसा है परन्तु जिसमें आत्मभाव का हनन न हो वह हिंसा नहीं है । दान, पौषध साधुविहार, देवपूजा, प्रतिक्रमण, साधर्मीवात्सल्य आदि आत्मभाव को हनन नहीं करने वाली क्रियाएं हैं और इसीलिये ये परम्परा से सम्पूर्ण अहिंसा हैं और मुक्ति को दिलाने वाली हैं। मुक्ति के साधनों का सेवन करते हुए हो जाने वाली अनिवार्य हिंसा आत्मभावों को हनन करने वाली नहीं होती। ऐसी विवेक पूर्ण बुद्धि जिनकी नहीं है वे विवेकहीन धर्मबुद्धि
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