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तृत्यांग-श्री समवायांग सूत्र के चौतीसवें समवाय में तीर्थकर के चौतीस अतिशयों का वर्णन है। वहां स्पष्ट पाठ है कि प्रभु का एक अतिशय यह भी है कि "जल में, स्थल में उत्पन्न होने वाले सचित फूलों की देवता लोग भगवान के घुटनों तक वर्षा करते हैं। यह अतिशय केवल-ज्ञान होने के पश्चात से निर्वाण होने तक तीर्थंकर प्रभु को होता है । प्रभु के अतिशय के कारण उन फूलों को किलामना (बाधा-पीड़ा) नहीं होती।
2. तीर्थंकर-अरिहंत के बारह गुणों में चार मूल-गुण तथा आठ प्रातिहार्य हैं। मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय इन चार धातिया कर्मों के क्षय से चार मूल-गुण-1. ज्ञानातिशय, 2. पूजातिशय , 3. वचनातिशय , 4. अपायापगमातिशय हैं । तथा आठ प्रातिहार्य 5. अशोक वृक्ष, 6. सुरपुष्प वृष्टि, 7. दिव्य ध्वनि, 8. चामर, 9. आसन, 10. भामंडल, 11. दुंदुभि तथा 12. छत्र । कुल मिलाकर बारह गुण हुए । इन बारह अतिशयों में छठे नम्बर का अतिशय पुष्प-वृष्टि है और यह एक प्रातिहार्य भी है। केवल-ज्ञानी तीर्थंकर की भक्ति निमित्त देवता लोग पुष्पों द्वारा प्रभु की पूजा करते हैं । मात्र इतना ही नहीं किन्तु प्रभु के प्रत्येक कल्याणक में, तप के पारणे आदि के अवसर पर भी प्रभु की भक्ति निमित्त सचित पुष्प-वृष्टि होती है।
3. प्रभु की जीवित अवस्था में इन्द्र देवता आदि पुष्पों आदि से प्रभु की पूजाभक्ति आदि तो करते ही हैं। पर वे जिन-प्रतिमा तथा प्रभु की मृतदेह तथा दाढ़ाओं के प्रति भी वैसी ही श्रद्धा और भक्ति करते हैं ।
इन्द्रों और देवताओं को कोई नियम पच्चक्खाण नहीं होता, वे अविरति होते हैं। यही कारण है उन्हें पांचवां गुणस्थान नहीं होता। पर वे लोग विवेकवान तथा सम्यग्दृष्टि तो होते ही हैं। यही कारण है कि वे अपनी सभा में विषय-वासना की कोई भी बात नहीं करते। उनके सभागहों में तीर्थंकरों को शाश्वती प्रतिमाएं होती हैं। उनकी आशातना होने न पावे, इस बात का वे पूरा-पूरा लक्ष्य रखते हैं । अतः वे जिन-प्रतिमा की बहुत विनय करते हैं।
4. इसी तरह तीर्थंकर के अभाव में अविरति सम्यग्दृष्टि तथा देशविरति श्रावक श्राविकायें भी अपने आत्म-कल्याण केलिये जिन-प्रतिमाओं की स्थापना करते हैं । साधु-साध्वी भी उपदेश देकर श्रावक-श्राविकाओं द्वारा जिन-प्रतिमाओं का निर्माण अथवा स्थापना करवा कर जिनमंदिरों, गुफाओं आदि में विराजमान कराकर उनकी प्रतिष्ठा करते हैं और उन प्रतिमाओं द्वारा अविरति विरतिश्रावकश्राविकाएं तथा सर्वविरति साधु साधवी उपासना, भक्ति और ध्यानकर आत्म कल्याण कर अपना मनुष्य जन्म सफल बनाते हैं।
5. गृहस्थ श्रावक-श्राविकाएं जिन-प्रतिमा का पूजन तीन प्रकार से करते हैं1. अंग पूजा, 2. अग्न पूजा तथा 3. भाव पूजा।
___ 1. अंगपूजा में प्रभु के शरीर पर चढ़ाये जाने वाले द्रव्यों का समावेश है। जैसेकि जलादि पंचामत (दूध, दही, मिश्री, घी, जल) से प्रभु के शरीर का प्रक्षालन ।
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