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________________ 125 उत्तर गुणों के सात व्रतों में श्रावक-श्राविका के रहन-सहन, भक्ष्याभक्ष्य, नित्यकर्म आदि का समावेश है । पांच व्रत तो आचार शुद्धि के मूल हैं और बाकी के उत्तर गुण उनकी रक्षा तथा उनमें निर्मलता आदि लाकर प्रवर्धन का कारण हैं मूल गुण चरित्र की आत्मा है और उत्तर गुण उसका शरीर । जिस प्रकार आत्मा के बिना का शरीर मुर्दा है, मुर्दा शरीर आत्मा के बिना उपयोगी नहीं है और निरोग-स्वस्थ शरीर के बिना आत्मा भी अपने शुद्ध स्वरूप को पाने में असमर्थ रहता है । इसी प्रकार मूलगुण तथा उत्तरगुण व्रतों का आपस में सम्बन्ध है । अतः मूलगुणों को छोड़कर उत्तरगुणों को मात्र प्रधानता देने से शोभा नहीं पाते । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा मध्यस्थ भावों की प्राप्ति के लिये मूल गुण प्रथम आवश्यक है । मूल गुणों की प्राप्ति सर्व प्रथम अनिवार्य है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा ममत्व त्याग ये मूल गुण हैं और सामायिक, पूजा, पाठ, भक्ष्याभक्ष्य विचार, कार्याकार्य विचार इत्यादि उन मूल गुणों की रक्षा के लिये हैं। यदि मूलगुण ही नहीं तो उत्तर-गुणों से रक्षा किस की । यही कारण है कि ब्राह्मण-देवता के मूल गुणों को प्राप्त किये बिना अथवा उनकी प्राप्ति के लक्ष्य के बिना पूजा-पाठ, नित्यनियम, भगवद-भजन आदि निन्दा के तथा पतन के कारण बने । यही कारण है कि आज का मानव विश्व के प्राणियों के लिये मैत्री, प्रमोद, कृपा (दया) मध्यस्थ भावना के अभाव में अन्याय-अनर्थ से पूंजीपति बनकर दानव बन गया है। जो कि अपनी नामवरी के लिए धोड़ा बहुत दानकर अपने कलंकित कारनामों को मानव के खून से धो डालना चाहता है और धर्मात्मा-दानी बनने के शिलालेख लगाकर अपने कुकृत्यों के ढकने में कृतसंकल्प है। यही कारण है कि जैनों में भी आज आचार और विचारों की शुद्धि में शिथिलता आती जा रही है। जितना बाह्य तड़क-भड़क तथा क्रियानुष्ठानों पर बल दिया जाता है उतना मन-वाणी तथा शरीर द्वारा होने-वाले दुष्कृत्यों के परिष्कार पर लक्ष्य नहीं रखा जाता। जोकि इस पर बल देने से ही आत्मिक तथा स्व-पर कल्याण संभव है। ___ अब हम अहिंसा-हिंसा के स्वरूप का विस्तार पूर्वक विचार करने के बाद अपने मूल विषय पर आते हैं। जिनप्रतिमा पूजन में हिंसा सम्बन्धी शंकाओं का समाधान जल, फल, फूल, धूप, दीप, आदि सचित द्रव्यों से पूजा करने से हिंसा है । अतः हिंसा में धर्म नहीं होने से जिन-प्रतिमा का मानना तथा उसकी पूजा करना उचित नहीं। समाधान--इन्द्रों तथा देवी-देवताओं द्वारा तीर्थंकर प्रभु तथा उनको प्रतिमा की भक्ति 1. श्री तीर्थंकर प्रभु के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाण कल्याणकों में सम्यग्दृष्टि देवता-देवियां तीर्थंकर प्रभु की भक्ति निमित्र सचित्त फूलों की वर्षा करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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