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________________ 124 खो बैठा। मान-मर्यादा धन-सम्पत्ति सब कुछ खोकर दीन-हीन अवस्था को प्राप्त हुआ । मात्र इतना ही नहीं आने वाली पीड़ियां भी इस की नामर्दी पर चार-आंसू बहायेगी । "यदि आज समाज छोटे छोटे अपराध करने वालों के पीछे पंजे झाड़कर पड़ जाता है पर ऐसे बड़े अपराधियों को अपने माथे पर मुकुट के समान शृंगार मानकर सिर -आंखों पर बिठाता है 'उन्हें समाज का प्रधान, मन्त्री आदि उच्च पदों पर आरूढ़ करके - अपने आपको कृत- पुण्य मानता है ऐसा होने से ही आज का मानव परेशान और दुःखी "है । आज का त्यागी साधु वर्ग भी ऐसे लोगों की प्रशंसा तथा आवभगत करके अपना गौरव समझता है । इन्हीं सब बुराइयों से मानव समाज को छुटकारा दिलाने के लिये श्री तीर्थंकर भगवन्तों ने गृहस्थों के लिये (सप्त व्यसन त्याग, मार्गानुसारी के गुणों का आचरण, अहिंसा अणुव्रत के स्वरूप की रचना और उसकी पूर्ति और पुष्टि के लिये अन्य सत्य-अचौर्य-स्वदारा संतोष-परस्त्री-गमन विरमण तथा परिग्रह परिमाण रूप चार अणुव्रतों तथा तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षा व्रतों ( कुल सम्यक्त्व - मूल बारह व्रतों) से गृहस्थों को अलंकृत किया । मानव को सदाचारी और वीर बनाने के लिए गृहस्थ के उपर्युक्त बारह व्रत - सर्व कला - सम्पूर्ण हैं | महापुरुषों का कहना है कि "जननी जनियो भगत जन, का दाता, का शूर Jain Education International नहीं तो रहजो बांझड़ी, मती गंवाइयो नूर ॥ अर्थात् - हे माता ! यदि तुम ने पुत्र को जन्म देकर माता बनने का गौरव पाना है तो भगतवीर, दानवीर, अथवा शूरवीर पुत्र को जन्म देना । यदि ऐसा सम्भव न हो तो दुराचारी, कृपण, कायर को जन्म न देकर तुम्हें बांझ रहने में ही गौरव मानना चाहिए । 1 अब आप ही जरा ठण्डे दिल से सोचिये कि वह ब्राह्मणदेवता रामभक्त पूंजीपति वास्तव में बड़ा अपराधी है अथवा मांसाहारी गुंडा पठान ? यदि सच्च पूछा जाए तो धर्म का पालन वीर पुरुष ही कर सकते हैं । कायर क्या करेगा। वीरता तो मानव का सबसे उत्कृष्ट आभूषण है । धर्म और ईमान की आत्मा है । वीरता के बिना धर्म और इनसान पंगु है । एक अंग्रेज विद्वान ने कितना ही सुन्दर कहा है कि हे मानव ! “Be brave and gentle" वीर बनकर सदाचारी भद्रपुरुष बन । वीर बनकर सिंह की तरह भयावह न बनना और कायर बनकर कुत्ते की तरह दुम दबाकर भागना मत । बहादुर और शरीफ़ बन । जैन दर्शन ने इस बात का बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण किया है । साधु और श्रावक के व्रतों को दो-दो भागों में बांटा है - ( 1 ) मूल गुण तथा (2) उत्तर गुण । मूल गुण में साधु के पांच महाव्रत तथा उत्तर गुण में चरण सत्तरी, करणसत्तरी अर्थात् वे सब नियम जिन से इन पांचों महाव्रतों का संरक्षण, प्रवर्द्धन तथा निर्मलता की उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए निरतिचार सच्चरित्रता का पालन हो। इसी प्रकार श्रावक के व्रतों के लिये भी है । उसके मूलगुण में पांच अणु-व्रतों का समावेश है । इन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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