SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 109 दिगम्बर पंथ के मंदिरों में तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के सर्पफणवाली मूर्तियां भी विराजमान हैं और उन की पूजा भी की जाती हैं । यह प्रतिमा छद्मस्थ श्रमणावस्था में कमठ द्वारा किये गये उपसर्ग के निवारण के समय की धरणेन्द्र यक्ष द्वारा किये हुए सर्पण वाली है । 6. पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी पूजा का अधिकार पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी जिनप्रतिमा का प्रक्षाल अभिषेक-स्नान, विलेपन, टिक्की, पुष्प, अलंकारों आदि द्वारा जिनप्रतिमा की अंग पूजा का अधिकार है । उदाहरण रूप से - ( 1 ) मुकुट सप्तमी पूजा कथा (2) मयणा सुन्दरी द्वारा सिद्धचक्र पूजा, (3) पुष्पांजली पूजा के उल्लेख दिगम्बरों के साहित्य में विद्यमान हैं । जिन पूजाओं को स्त्रियों ने करके अपना कल्याण साधन किया है । 7. वर्तमान में श्वेतांबर दिगम्बर पूजा विधि में अन्तर क्यों ? जिन प्रतिमा पूजन में काम आने वाले जल, पुष्प, फल, धूप, दीपक, आरती आदि अनेक द्रव्य ऐसे हैं जो सचित हैं । उन से पूजा करने से हिंसा होती है तथा मुकुट, कुडल, रत्न मालाओं पुष्पमालाओं आदि से अलंकार पूजा भोग- परिग्रह का कारण मान कर इन पूजाओं को दोषपूर्ण मान कर वर्तमान दिगम्बर निषेध करते हैं । जो कि यह मान्यताएं उनकी भ्रांत, अज्ञानमूलक और मिथ्या हैं । जैनागम - सिद्धान्त के एक दम प्रतिकूल हैं । इस का विवेचन हम आगे करेगे । उपयुक्त मान्यताओं के कारण ही ऐसे मतभेदों का जन्म हुआ । तथा मूर्ति मान्यता के विरोध में श्वेताम्बर - स्थानकेमार्गी तेरापंथ तथा दिगम्बर तारणपंथ आदि अनेक पंथों का प्रादुर्भाव हो जाने से मूर्तिपूजा के विरोध में बहुत बड़ा वावंडर खड़ा हो जाने के कारण जैनशासन को जो हानि उठानी पड़ी इन सब का विस्तृत बिवरण आगे किया है । जिनप्रतिमा पूजन विधि विरोधी पंथ दिगम्बर पोत्पत्ति जैनधर्म में से समय-समय पर किन्हीं कारणों को लेकर अलग होने वाले श्रमणों ने अलग-अलग मत पंथ, संप्रदाय स्थापित किये । ऐसे सब मत, पंथ, संप्रदायों को जैनागमों में निन्हव कहा है। उन में से एक दिगम्बर पंथ भी हैं । (1) चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के 609 वर्ष में कृष्ण मुनि के शिष्य शिवभूति जिस का गृहस्थनाम सहस्रमल ने एकांत नग्नत्व को लेकर महावीर शासन से अलग होकर एक नये पंथ की स्थापना की। वह पंथ दिगम्बर मत के नाम से प्रसिद्धि पाया । दक्षिण में जा कर यापनीय संघ के नाम से विख्यात हुआ । ( दिगम्बर भाई इस मतभेद को वि०सं० 136 में मानते हैं ) । इस पंथ के साधु एकदम नंगे थे और हस्तभोजी ( दोनों हाथों में लेकर - आहार करते ) थे । वस्त्र - पात्रादि उपधि नहीं रखते थे । उपधि ( उपकरण ) जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy