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________________ 108 (उ) तीर्थकर की छद्मस्थ श्रमण १ वस्था भी पूजनीय है विद्यावते तीर्थकराय तस्माकाहारदानं रखते विशेषात। गृहे-नृपस्याजनि रत्न-वृष्टि: स्तोमि प्रणामांन्नयती नमि तां अर्थात-(मनःपर्ववादि चार) ज्ञान सम्पन्न तीर्थंकरदेव को-आहार दान देने से राजा के घर में रत्न वृष्टि हुई। उन नमि (21 वें) जिन की समग्ररूप से और पृथक रूप से मैं पूजा और स्तुति करता हूं (स्वयंभू स्तोत्र)। (अ) अतः अभिषेक सुगंधित द्रव्यों से विलेपन-तिलक, अलंकार-वस्त्र आदि से तीर्थकरों की जन्मकल्याणक की पूजा। . (आ) स्नान, विलेपन, वस्त्र, मुकुट, कुडल, रत्नों-पुष्पों की मालाओं, पुष्पों आदि से राज्यावस्था की पूजा । (इ) वस्त्र-अलंकार आदि, धूप, दीप, वाजिक, रथयात्रा से तप (दीक्षा) कल्याणक की पूजा। (ई) आहार-मिष्टान्न तीमन, पके चावलों फलों आदि अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों से श्रमणावस्था की पूजा । (2) पदस्थ-केवलज्ञानावस्था-अष्टप्रातिहार्य, पुष्पपुज समवसरण अष्ट-- मंगल, स्वर्ण पुष्प, धूप, नाटक, ध्वजा, धर्मचक्र आदि से केवलज्ञानावस्था की पूजा । (3) रूपातीत-सिद्धावस्था-स्तुति-स्तोत्र, प्रतिपत्ति, वंदनादि द्वारा भक्ति पूजा। 3. पांच कल्याणक पूजा (1, 2) च्यवन (गर्भ), जन्म-ये दो कल्याणक गृहत्याग से पर्व आगारी छद्मस्थावस्था। (3) तप (दीक्षा) कल्याणक से छद्मस्थ श्रमणावस्था । (4) केवलज्ञान कल्याणक-वीतराग-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर अवस्था । (5) निर्वाण कल्याणक से अरूपि सिद्धावस्था। इस प्रकार तीर्थकर की आगारी (गृह त्याग करने से पहले की) अवस्था दीक्षा लेने के बाद अणगारी छद्मस्थ श्रमण अवस्था, तप अवस्था, केवली तीर्थंकर अवस्था, और सिद्धावस्था, पाँचो प्रकार की अवस्थाओं को दिगम्बर पूज्य मानते हैं और उनकी अनेक द्रव्यों द्वारा, नाटक, नृत्य, वाजित्रों आदि द्वारा नाना प्रकार की आडम्बर पूर्वक पूजाए करते हैं। 4. श्वेतांबर-दिगम्बर द्वारा पूजा विधि समानता--- उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि श्वेतांबरों तथा दिगम्बरों के जिनप्रतिमा पूजन विधानों में पूर्णरूप से समानता है । वर्तमान में दिगम्बर लोग तीर्थकर की मात्र केवलज्ञान और सिद्धावस्थाओं (दोनों अवस्थाओं) को ही पूज्यमान कर बाकी अवस्थाओं की पूजाओं का निषेध करते हैं । परन्तु 5. तेईसवें तीर्थंकर श्री प्राश्वनाथ की सर्प फण वाली मूर्ति की पूजा यह मान्यता उनकी अपने ही शास्त्रों के विरुद्ध है। जिसका हम अगले प्रकाशों में समय-समय पर विस्त्रित विवेचन करेंगे। यहाँ तो मात्र एक उदाहरण देना ही पर्याप्त है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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