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________________ 110 कि निरातिचार संयम साधना में अनिवार्य हैं । उन्हे परिग्रह मान कर त्याग कर दिया गया । तथापि शरीर, कमंडल, मोरपीछी, चटाई, पुस्तक, शिष्य आदि रखना स्वीकार किया। साध्वी (आर्यिका) के लिये उपर्युक्त उपधि के अतिरिक्त सफेद साड़ी पहनने पर भी पांच महाव्रतधारिणी तथा उसके मोक्षपाने की मान्यता को कायम रखा। वर्तमान में यापनीय संघ विलुप्त हो चुका है)। (2) विक्रम की चौथी-पांचवी शताब्दी में दिगम्बराचार्य कूदकूद ने यापनीय संघ से अलग नये दिगम्बर पंथ की स्थापना की और इस पंथ को मूलसंघ के नाम से घोषित किया। इस पंथ ने गृहस्थ केलिए सामायिक, प्रतिक्रमण आदि षट् आवश्यक, पौषध, पच्चाखाण आदि अनेक प्रकार की आत्म-कल्याणकारी धर्मानुष्ठाणों का, स्त्री मुक्ति, केवलि-भुक्ति, केवली की वाणी आदि अनेक बातों का एकदम निषेध कर दिया। यापनीय संघ भी इन्हीं आगमों को प्रमाणिक मानता था जिन्हें श्वेतांवर जैन प्रारम्भ से आज तक प्रमाणिक मानते आ रहे हैं। पर इस में दिगम्बर पंथ ने विक्रम की छठी शती में जब बहुत सी बातों का अन्तर बढ़ता गया तब इन प्राचीन आगमों को दिगम्बरों ने अप्रमाणिक कहकर छोड़ दिया और विच्छेद हो जाने की उद्घोषणा कर दी। नये ग्रन्थों की रचनाएं करके अपने पंथ की नये साहित्य का सर्वत्रिक प्रचार शुरू कर दिया। पर मूर्तिपूजा के विधि-विधानों में कोई फेर-फार न करके पूर्ववत श्वेतांबर जैन जैसे मानते आ रहे हैं वैसे ही चालू रखा । (आज कल यह पंथ दिगम्बर बीसपंथ के नाम से प्रसिद्ध है) इस पंथ ने साध्वी के महाव्रतों का निषेध करके श्राविका माना और तीर्थंकर भगवन्तों के साधु-साध्वी, श्रावक-.. श्राविका रूप चतुर्विध संघ के बदले विविध संघ की मान्यता कायम की और इस पंथ. के मुनि आयिाकओं के निमित्त बनाये हुए आधाकर्मी आहार लेने की प्रथा चालू की। 3-दिगम्बर तेरहपंथ (बनारसी मत) तथा तारणपंथ-विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में मुगलसम्राट अकबर के पुत्र जहाँगीर के समय में श्रीमाल ज्ञातीय गृहस्थ वनारसीदास ने अपने अन्य चार गृहस्थ साथियों के साथ दिगम्बर तेरहपंथ की आगरा में स्थापना की । इस पंथ ने तीर्थंकर प्रतिमा के पूजन में अभिषेक, फल, फूल, नैवेद्य आदि चढ़ाने तथा अंग पूजा, अलंकार पूजा का भी निषेध किया । इसने इस पूजा विधि विधानों में हिंसा तथा भोग माना और पाँचों कल्याणकों की पूजा को निषेध कर मात्र केवली तथा सिद्धावस्था की पूजा सूखे द्रव्यों से करने को स्वीकार रखा। इस पंथ की यह मान्यता भी है कि वर्तमान काल में जो दिगम्बर साधु हैं वे भी जैन त्यागमार्ग का पालन नहीं कर पा रहे अतः ये जैन साधु नहीं हैं। 4-विक्रम की 18 वीं शताब्दी में दिगम्बर तारणस्वामी ने अपना एक अलग मत स्थापित किया। इसने प्रतिमा पूजन का एकदम निषेधकर दिया पर दिगम्बर ग्रन्थों पर आस्था रखकर इन ग्रन्थों को पूज्य मानता है। 5. लुकाढ़ ढिया मत जैनधर्म में सदा से जिनमन्दिरों तथा जिनप्रतिमाओं की स्थापना-उपासना और पूजा चालू है। बड़े-बड़े आलीशान प्राचीन अर्वाचीन जैनमन्दिर, जैनतीर्थ,. जैनगुफायें, जैनस्तूप और जैनतीर्थंकरों की मूर्तियाँ आज भी सर्वत्र विद्यमान हैं जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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