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102 सुरवणज-जुहिय-पारिजा-सवण-ढगरेहिं । कणवीर-मल्लियाई कचणार-मयकुद किंकराहिं ।।8।। सोवण्ण-रूवमेहिं या मुत्तादामेहिं बहु वियप्पेहिं ।।
जिणपय-संकय-जुयलं पूजिज्ज सुरिंदसयमहियं ।।9॥ अर्थात---मालती, कदंब, सूर्यमुखी, अशोक, बकुल (मोलसरी) तिलकवृक्ष के फूल, मंदार, नागचंपा, कमल, निर्गुडी के फूल, कणवीर के फूल, मल्लिक, कचनार के फूल, मचकुद, किंकर, कल्पवृक्ष के फूल, जुई, पारिजात, जासूस के-फूलों आदि सचित पुष्पों से बहुत प्रकार के अचित-पुष्पों फूल, डयरे के, सोने के फूल, चाँदी के फूल, सच्चे मोतियों की मालाओं आदि अनेक प्रकार की बहुमूल्य मालाओं से (देवेन्द्रों आदि से पूजित) जिनेन्द्रदेव के चरणों की पूजा करो । - (ऐ) नैवैद्य पूजा
दही-दुद्ध-सप्पि-मिस्सेहिं कमलभत्तहिं बहुप्पयारैहिं । तवट्ठि-वंजणेहिं य बहुविह-पक्कण-भेएहिं ॥10॥ रुप्प-सुवण्ण-कंसाइ-थाल-णिहिएहि विविह-भरिएहिं ।
पूयं वित्थारिज्जा भत्तिए जिणंद-पय-पुरिआ।।11।। अर्थात-दही, दूध, घी से मिश्रित मीठे चावलों का भात करके तथा नाना प्रकार के शाकादि व्यंजन (तीमन) करके एवं नाना प्रकार के पक्वान्न करके; सोना, चांदी, कांसी आदि के थालों में भर कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों के आगे चढ़ा कर पूजा का विस्तार करें।
(ओ) दीपक पूजा
"दीवहिं णिय-पहा-होमिय-क्कत्तहिं धूम-रहिएहिं । मंद-मंदाणिल वसेण णच्चं तहिं अच्चणं कुज्जा ।।12।। घण-पडल-कम्माणि चयव्व दरमवसारियंधयारेहिं । जिण-चलण-कमल-पुरुओं कुणिज्ज रयणं सुभत्तिए" ॥13॥
अर्थात्-जिस की प्रभा के समूह ने सूर्य के समान प्रताप धारण किया है। जिसकी धुएं से रहित शिखा है । जो मंद-मंद पवन के वेग से नट के समान नृत्य कर रही हैं। अति सघन कर्मपटल के समूह के समान जो अंधकार है, उसे अपने प्रकाश के प्रभाव से दूर करते हुए-ऐसे दीपक की रचना करके भक्ति से जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों के आगे रखकर जिनेन्द्रदेव की पूजा करता हूँ।
(प्रो) धूप पूजा
"कालायरु-णह-चंदन-कप्पूर-सिल्लारसाइ दव्वेहिं । णिप्पण्ण-धव-बत्तिहिं परिमला-पंतियालिहिं ॥14॥ उग्ग-सिहा-देसिएहिं सग्ग-मोक्ख-मग्गहि-बहुल-धूमेहिं । धूविज्ज जिणिंद-पायारविंद-जुयलं सुरिंदणु यं ।।15।।
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