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________________ 161 थित-जिनप्रतिमा का पत्तों, नकदी से सरवारना करके, जवारे के हरित अंकुरों से, सरसव के पत्तों से, वृक्ष के पत्तों से एवं उपर्युक्त उपकरणों से अपने विभवानुसार जिनेश्वरदेव की पूजा करें। (ई) सुगंधित जल से अर्ध्य पूजा गहिऊणं ससिरकर-किरण-णियर-धवलयर-तण-भिंगारं। मोति-पवाल-मरगय-सुवष्ण-मणि-खचिय-वर कंठ ॥1॥ सुय-बुत्तं कुसुम-कुवलय-रज-पिंजर-सुरहि-विमल-जल-भरियं । जिण-चलण-कमल-पु रओ खेविज्ज उ-तिण्ण-धाराओ ॥2॥ अर्थात- चन्द्रमाँ की किरणों के समान उज्ज्वल रत्नों से जड़ी हुई झारियों को ग्रहण करके-वह झारियां कैसी हैं ? मोती, मूगा, मरकत, सोना, मणियों आदि से जड़े हुए हैं कंठ जिनके तथा शास्त्रोक्त पुष्पों और कमलों आदि से पीलासुगंधित निर्मल जल भरा है जिस में, ऐसी झारियों के जल से जिनप्रतिमा के आगे तीन धाराए देकर अर्ध्य पूजा करे। (उ) चंदनादि सुगंधित द्रध्यों से पूजा कप्पूर-कुकुमायरू-तरूक्क-मिस्सेण-चंदण-रसेण । वर-बहुल-परिमला-मोय-वासिया सा समूहेण ।।3।। वासाण-मग्गा-सपत्ता-भयमत्तालि-रव-मुहलेण । सुर-मउड-घडिय-चलण-भत्तिए समल्लाहिज्ज जिणं ।।4।। अर्यात-देवताओं के मुकुटों से स्पर्शित चरणकमल है जिनके । ऐसे चरण कमलों को कर्पूर, चंदन, केसर, अगरु आदि सुगंधित द्रव्यों को घिसकर मिश्रित रस से, जिसकी सुगंध से चारों दिशाए महक उठी हैं और उससे आकृष्ट होकर भंवरों की मदोन्मत्त पंक्तियों से अव्यक्त ध्वनि का गुजारव हो रहा है ऐसे मिश्रित चन्दनादि सुगंध से श्री जिनेश्वर प्रभु के चरण कमलों का विलेपन करो। (ऊ) अक्षत-पूजाससिकंत खंड विमलेहिं विमलजलेहि सित अइ-सुअंधेहिं । जिणपडिमा पइट्ठिए जिय विसुद्ध पुण्णंकुरेहिं च ।।511 वर-कमल-सालि-तंदुल-चणिह-सुछंडिय-दीह-सयलेहि । मणुय-सुरासुर-महियं पूजिज्ज जिणिदं पय-जुयलं ॥61. अर्थात-चन्द्रमा की चांदनी के समान अति उज्ज्वल अखंडित निर्मल अक्षतों (चावलों) से जो निर्मल अति सुगंधित जल से घुले हुए हों, उन से जिनप्रतिमा का पूजन करें। वे चावल मानो पुण्यांकुर हैं। अति मीठे कमलशाली तं दलों (चावली) के समूह को अति स्वच्छ करके प्रभु के चरण कमलों के आगे बढ़ा कर जो चरण कमल-मनुष्यों, देवताओं और असुरों द्वारा पूजित हैं । उनकी पूजा करो। (ए) वनस्पतिपरक सचित तथा स्वर्ण आदि के अचित पुष्पों से पूजा मालिय-कयंब-कणयारिय-पयासोय-बउल-तिलेहिं । मंदार-पाय-चंपय-पउमुष्पले-सिंदुवारेहिं ।।7। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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