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________________ 80 पंथ, तेरहपंथ, तारणपंथ और काहन ( कानजी का ) पंथ वर्तमान में विद्यमान हैं। श्वेतांबरों में स्थानकवासी ढुंढिये और तेरापंथी एवं दिगम्बरों में तारणपंथी ये तीन पन्थ मुर्तिपूजा के विरोधी हैं। ये तीनों पन्थ जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा नहीं मानते इसलिए इनका पूजा पद्धति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । ये तीनों पन्थ आज से दो सौ से तीन सौ वर्षों के बीच में स्थापित हुए हैं। यहां तो जिनप्रतिमा पूजन के विधि-विधानों सम्बन्धी विचार करना है । अतः मूर्तिपूजक श्वेतांबर तथा दिगम्बर बीसपंथी- तेरह पन्थी ये तीनों आमनाएं जिनप्रतिमा को तीर्थकरदेव मानकर उस की पूजा उपासना करती हैं । श्वेतांवर-दिगम्बर पूजापद्धति में समानता होते हुए भी, इसमें विषमता पैदा करके अनाड़ी लोग जैनसंघ में विषैली विषमता उत्पन्न कर रांग-द्व ेष की अग्नि को बढ़ावा देकर कर्मबन्धन कर रहे हैं और जेनसंघ में फूट डालकर सघ विभाजन के महान् दुष्कृत से भविष्य में दुर्गति के पात्र बन रहे हैं । अतः यहाँ पर तीनों की पूजा पद्धतियों का अवलोकन करना आवश्यक प्रतीत होता है । 1- श्वेतांवर जैनों की पूजापद्धति (1) वाचक श्री उमास्वाति ने अपने श्रावकाचार में -इक्कीस प्रकारो पूजा का विधान लिखा है । स्नान - विलेपन - विभूषित- पुष्प- वास । दीपैः प्रधूप-फल- तन्दुल- पत्र-पूगै: ।। नैवेद्य-वारि-वसनैश्चामर - रातपत्र । वादित्र गीत-नृत्य-स्वस्तिक कोष दुर्वा ॥ 1॥ इति विधा- जिनराज - पूजा चान्यत प्रियं तदोह भाववशेन योज्यम् ॥” अर्थात् - 1- स्नान, 2- विलेपन, 3-पुष्पं, 4- वास ( चन्दन, केसर, कर्पूरादि ) 5दीप, 6-धूप 7-फल, 8- चावल, 9-पत्र 10 सुपारी, 11- नैवेद्य ( पक्वान्न), 2-जल, 13- वस्त्र, 14 - चामर, 15- छत्र, 16 - वाजित्र, 18 - गीत, 18 - नाटक, 19 स्वस्तिक, 20- कोष ( भन्डार ) 21 - दुवी । यह इक्कीसप्रकार की श्री जिनराज की पूजा करें तथा और भी जो प्रिय हो शुद्धभावों से पूजन की योजना करें । चैत्यवन्दन महाभाष्य में सर्वोपचारी पूजा का स्वरूप --- सव्वोवयार जुत्ता व्हाण ऽच्चण नट्ट- गोय-माईहि । पवाइसु कीरs निच्चं वा इड्डिम तेहि ॥ ar दुद्ध दहि य गंधोदयाइ व्हाण पभावणाजणगं । सइ गीय-वाइयाइ संयोगे कुणइ पव्वेसु ॥ अर्थात् सर्वोपचार युक्त पूजा 1 स्नान, 2- विलेपन, 3 नाटक 4- गीत आदि से होती है, अथवा गृहस्थों द्वारा प्रतिदिन की जाती है । सर्वोपचारी पूजा घी-दूध-दही, सुगंधित जल से अभिषेक ( स्नान ) द्वारा स्नात्र महोत्सव प्रभावजनक बनता है | यह पूजा गीत, वाजित्रों आदि सहित पर्व दिनों में की जाती है । जिनपूजा के अनेक प्रकार शास्त्र में बतलाये है ( 3 ) 1 - अधिक सामग्री के अभाव में अक्षतों से पूजा- एक प्रकार की पूजा | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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