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________________ पांचवां प्रकाश जिन प्रतिमा पूजन-पद्धति संबोधप्रकरण में देवपूजा के अधिकार में जैनाचार्य श्री हरिभद्र सूरि लिखते हैं तम्हा जिन सारिच्छा जिणपडिमा सुद्ध जोय-कारणया। गब्भत्तिए लगभए जिणंद पूया फलं भवो ॥1॥ जम्हा जिणाण पडिमा अप्प परिणाम दंसणनिमित्त। मायंस मंडलामा सुहासुहं झाण-दिट्ठिए ।।2।। सम्मत्त-सुद्धकरणी जणणी सुह जोग सच्च पहवाण । निद्दलिणी दुरियाणं भवदव उज्झ भवियाणं ॥3॥ प्रारंभ पसत्ताण गिहीण छज्जीव-वह विरयाण । भव पडवी निबडियाण दव्वस्थमो चेव आलंबो।।4।। जिणपूरण ति-सझं कुणमानो सोहएइ सम्मत। तित्थयर-नामगुत्त पावइ सेणिय नरिंद व्व ।।5।। जो पूएइ ति-संझं जिणदरायं सया विगय दोसं । सो तइए भवे सिज्झइ महवा सत्तट्टमे जम्मे ।।6।। भावार्थ-शुभ योग में कारणभूत होने से जिनप्रतिमा भी जिन के समान ही है। अतः [उसे साक्षात् जिनेश्वर प्रभु मानकर] उसकी भक्ति से पूजा करने से भव्यात्मा को साक्षात् श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा का ही फल प्राप्त होता हैं । (1) परिणाम विशुद्धि केलिए शुभाशुभ ध्यान की दृष्टि से जिनप्रतिमा स्वच्छ दर्पण से समान है। (2) यह सम्यक्त्व को निर्मल करने वाली सत्यप्रभव शुभ योग की जननी है (3)-संसार रूप दावानल से दग्ध भव्यजीवों के पापों का नाश करने वाली है (4) भव रूप संसार अटवी में भटकने वाले और षट्काय की हिंसा के आरम्भ में आसक्त ऐसे गृहस्थों केलिए यह द्रव्य स्तव अर्थात् श्री जिनेश्वर प्रभु की द्रव्य पूजा ही आलम्बन-भूत है (5) इसलिए निरन्तर तीनकाल (प्रात:, मध्यान्ह, साय) श्री जिनेश्वरदेव की पूजा करनेवाले श्रेणिक राजा की तरह जो श्रद्धालु गृहस्थी जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह सम्यक्त्व को निर्मल करता है और तीर्थंकर नाम कर्म को बांधता है। (6) जो सर्वदोष रहित श्री जिनेश्वरदेव के प्रतिबिंब की भाव सहित पूजा करता है वह तीसरे भव अथवा सातवें आठवें जन्म में सिद्ध गति मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। - इस समय जैन समाज अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में विभक्त है। मुख्य रूप से दो शाखाएँ हैं; श्वेताम्बर और दिगम्बर (1) श्वेतांबरों में 1 श्वेतांबर मूर्तिपूजक 2 स्थानकवासी, 3- तेरापंथी। (2) दिगम्बरों में 1- बीसपंथ 2-तेरहपंथ 3तारणपंथ 4-गुमानपंथ 5- तोतापंथ 6-सागरपंथ 7. काहनपंथ । इनमें से बीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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