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आमुख
सन्तोष का विषय है कि मेरी सब कृतियां पाठकों ने सुरुचिपूर्वक अपनाकर मेरे साहस को परोत्साहन दिया है । लगभग 40 पुस्तकों के प्रकाशन पाठकों तक पहुंच चुके हैं। जिनमें से मात्र पांच-छह-पुस्तकें स्टाक में हैं। बाकी सब समाप्त है। बची हुई पांच-छह कृतियों में से भी सम्भवतः यह पुस्तक पाठकों के हाथ में पहुंचने तक शायद एक दो कृतियां ही बच पायें। कुछ कृतियों की दो-तीन आवृत्तियां भी समाप्त हो चुकी हैं।
जैनदर्शन में जिनप्रतिमां की मान्यता बहुत महत्त्व रखती है। यदि इसे जैन धर्म के सिद्धान्त और आराधना से निकाल दिया जाये तो यह अपनी व्यापकता को खो बैठेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
अनेक विद्वानों-पाठकों की वर्षों से उत्कृष्ट भावना रही है कि मैं इस विषय पर एक ऐसी पुस्तक लिखकर पाठकों को दं कि जिस में मतिप जा के विरोधियों के कटाक्षों, सर्वव्यापी प्रचार तया प्रसार से जैन संस्कृति पर किये जाने वाले आरोपों का समाधान पाने की जिज्ञासा पूर्ति हो । उनकी इस भावना को मूर्तरूप देने के लिये मैंने 'जैनधर्म और जिनप्रतिमा पूजन रहस्य' नामक पुस्तक, आगम, सिद्धान्त, पुरातत्व, इतिहास, संस्कृति, आत्मकल्याण में अत्यन्त उपयोगी, तर्कपूर्ण तथा भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के इस विषय पर विचारों का समन्वय रूप लिखकर पाठकों के करक कमलों तक पहुंचाने का साहस किया है।
इस पुस्तक में विषय का ज्ञान पाठक अनुक्रमणिका तथा पढ़ने से पालेंगे अतः अलग लिखना पिष्टपेषण करना उचित नहीं समझा।
जिन संस्थाओं अथवा व्यक्तियों ने इस पुस्तक के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग दिया है उनका उल्लेख प्रकाशकीय में इस संस्था के अध्यक्ष ने किया है।
इसके लिये मैं उनकी उदारता का अनुमोदिन करता हूं और उनकी भावना को मान देते हुए पुस्तक का मूल्य भी लागत से बहुत कम रखा गया है।
पाठक इस पुस्तक को मनन पूर्वक पढ़ने का परीश्रम करें । अनेक नयी जानकारियां मिलेंगी।
पढ़ने के बाद पाठक इस पुस्तक के विषय में अपनी आलोचना, समालोचना, अभिमत्त अवश्य लिखने की कृपा करें। यदि इसमें कोई विशेष परिवर्तन, शुद्धि, कमी बेशी करने की आवश्यकता प्रतीत हो तो भी अवश्य लिखने की कृपा करें। ताकि अगले संस्करण में उनकी उचित सामग्री का उपयोग किया जा सके। अक्षयतृतीया वि० सं० 2041
हीरालाल दुग्गड़-दिल्ली
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