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करनेवाले प्रवर्तन करानेवाले व उन्मार्ग से रोकने में दमन करनेवाले होने के कारण धर्मसारथि को, ‘धम्मवर चाउरंत...' चतुर्गति-विनाशक श्रेष्ठ धर्मचक्र के धारकों को ॥ ६ ॥ ___'अप्पडिहय' सर्वत्र अस्खलित केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारणकर्ता को, 'वियह छउमाण' सर्व प्रकार के घाती कर्मों से मुक्त को ॥ ७ ॥ __जिणाणं जावयाणं' राग और द्वेष पर विजय पाने से स्वयं जिन बननेवालों को, उपदेश द्वारा दूसरों को भी जिन बनानेवालों को, 'तिण्णाणं' सम्यग्दर्शनादि जहाज द्वारा अज्ञान-समुद्र को पार कर जानेवालों को, दूसरों को भी पार करानेवालों को, 'बुद्धाणं' केवलज्ञान प्राप्त करके बुद्ध बने हुए को, दूसरों को भी बुद्ध बनानेवालों को, 'मुत्ताणं' सर्व प्रकार के कर्म-बंधनों से मुक्त होनेवालों को, दूसरों को भी मुक्त करानेवालों को ॥ ८ ॥
सर्वज्ञ और सर्वदर्शी को, तथा शिव, स्थिर, व्याधि और वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध अपुनरावृत्ति (जहां से पुन: संसार में लौटना नहीं होता), सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुकों को उन जितभय जिनेश्वर भगवंतों को नमस्कार करता हूँ ॥ ९ ॥ ___ जो अतीतकाल में सिद्ध हो चुके हैं, जो भविष्यकाल में सिद्ध होते रहनेवाले हैं, और जो वर्तमान काल में अरिहंतरूप
में विद्यमान हैं, उन सब को मन, वचन और कायासे वंदन . करता हूँ ॥ १० ॥
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