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किसी भी जड़ या चेतन पदार्थ के प्रति रागद्वेष नहीं होते है। अत: वे वीतराग कहे जाते हैं। 'अरिहंत' का मुख्यार्थ 'अरिह' है 'जो अष्टप्रातिहार्य, ३४ अतिशय, समवसरण, नौ सुवर्ण कमल, आदि की शोभा व सुरासुरेन्द्र द्वारा की जानेवाली पूजा के योग्य होते हैं।' अर्ह = अरिह होने से 'अरिहंत' तीर्थं (धर्म-शासन) स्थापने से तीर्थंकर हैं। अनंतकाल में ऐसे अनंत
अरिहंत तीर्थकर हुए हैं। इसी अवसर्पिणी काल में इस भरतक्षेत्र में ऐसे २४ तीर्थंकर हुए हैं। इन सब के नाम इसी पुस्तक में अन्यत्र दिए गए हैं।
चैत्यवंदन यह तीर्थंकर परमात्मा को वंदन करने तथा उनकी स्तुति करने का अनुष्ठान है। तीर्थंकर का निष्पाप, शुद्ध जीवन पहले साधनामय होता है, बाद में कैवल्य प्राप्त होने पर जीवन्मुक्त सिद्धिमय होता है। वे सर्वज्ञ बनकर भव्यजीवों को सत्यतत्त्व और शुद्ध मार्ग का उपदेश देते हैं। तीर्थंकर भगवान श्रेष्ठ प्रेरक है, श्रेष्ठ आलंबन है।
चैत्यवंदन के अनुपम लाभ १. चैत्य यानी जिनमूर्ति की वंदना, स्तुति करने से अपना मन प्रसन यानी रागादिसंक्लेश से रहित व निर्मल बनता है।
२. मन को पापत्याग, सम्यक् साधना व सुकृत करने की प्रेरणा मिलती है।
३. तीर्थंकर के गुणों के चिंतन-मनन व आकर्षण-अहोभाव से हमारे में उन गुणों का बीजारोपण होता है जो भविष्य में गुणरूप में फलित होते हैं। 'बीजं सत्प्रशंसादि।'
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