SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो बार चार स्तुतियाँ (का जोड़), और जयवीयराय बोलकर किया गया चैत्यवंदन यह उत्कृष्ट देववंदन माना जाता है। चैत्यवंदन का फल शुद्ध भाव, शुद्ध वर्णोच्चारण एवं अर्थचिंतन आदि द्वारा की गई वंदना खरे सोने और असली छापवाले रुपये के समान होती है। ऐसी वंदना यथोचित गुणवाली होने के कारण निश्चित रूप से मोक्षदायक है। शुद्ध भाववाली किन्तु शुद्ध वर्णोच्चारण और अर्थचिंतन से हीन वंदना, खरा सोना नहीं किन्तु खोटी छापवाला रुपया समान है। यह अभ्यास दशा में अतीव हितकारी है । भावविहीन वंदना, वर्णादि से शुद्ध होने पर भी खोटे सोने किन्तु असली छाप के रुपए की भांति, खोटी है। उभयशुद्धि रहित वंदना खोटे सोने और खोटी छापवाले रु. के तुल्य सर्वथा खोटी और अनिष्टकारी है (पंचाशकशास्त्र) चैत्यवंदन से होनेवाला लाभ 'चैत्यवंदन' अर्थात् स्थापना-जिन यानी जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा को वंदन। जिनेश्वरदेव को तीर्थकर, वीतराग, अर्हत, अरिहंत आदि भी कहते हैं। रागद्वेष को जीतनेवाले ये जिन, केवली, वीतराग कहलाते हैं। इनमें जो प्रातिहार्य आदि विशिष्ट अतिशयित ऐश्वर्य के कारण मुख्य होते हैं, वे अरिहंत तीर्थंकर जिनेश्वर कहलाते हैं। भाव-तीर्थ अर्थात् संसाररूपी सागर से तैरने का साधन । तीर्थ को धर्मशासन भी कहते हैं। ऐसे तीर्थ अथवा धर्म - शासन के संस्थापक तीर्थंकर प्रभु होते हैं। उन्हें Jain Education International For Private & Personal www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy