________________
इस सूत्र का प्रधान सूर यह है कि हमारे द्वारा जानते हुए या न जानते हुए सूक्ष्म जीव - विराधना भी हुई हो तो उसे भी पाप समझा जाए । पाप के प्रति घृणा ग्लानि हो कर, हृदय- संताप तथा पाप का सच्चे हृदय से पश्चाताप किया जाए। इस सूत्र में वर्णित 'मिच्छामि दुक्कडं' पद प्रतिक्रमण का मूल आधार है । अतः इसका बार बार मनन करना चाहिए । इस पद का तात्पर्य है कि यदि हमने अपराध किया है तो उसके प्रति हमारे हृदय में अतीव घृणा है। साथ ही पाप करनेवाली अपनी आत्मा के प्रति भी हमारे हृदय में बड़ी भारी घृणा है कि,खेद है कि- मैं कैसा दुष्ट अधम, कि मैंने यह पाप किया ?' तदुपरांत पाप के विषय में पश्चात्तापपूर्वक क्षमा मांगे और पाप की निवृत्ति की इच्छा करें ।
पोषध अथवा चारित्र - जीवन में कहीं आये गये तो नहीं, तथा उसके कारण जीव विराधना न हुई हो, तो भी नवीन क्रिया के प्रारंभ में 'इरियावहियं' किया जाता है। इससे सूचित होता है कि यदि जीव-विराधना न भी हुई हो, परन्तु साध्वाचार का लेशमात्र भी उल्लंघन हुआ हो तो उस पाप की शुद्धि करने के हेतु भी यह सूत्र उपयोगी है। अतएव यहां 'इरियावहियाए विराहणार' पद से धर्मसंग्रह आदि शास्त्र जीव - विराधना के समान साध्वाचार के भंग को भी चारित्रविराधना रूप में स्वीकृत करके उसका भी प्रतिक्रमण कराते हैं।
Jain Education International
३०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org