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का स्मरण करके उसका प्रतिक्रमण या पश्चात्ताप किया जाता है। अत: इसे 'इरियावहियं सूत्र' कहते हैं। इसे प्रतिक्रमण सूत्र भी कहा जाता है। कारण यह है कि इस में घटित हुए जीव-क्लेश
और साध्वाचार के उल्लंघन के पाप के प्रति घृणा और उससे निवृत्त होने की क्रिया का वर्णन है। प्रतिक्रमण-सूत्र में संताप व क्षमायाचना है - जैसे न्यायाधीश के समक्ष क्षमायाचना के लिए हत्यारा भी तीव्र संताप व गद्गद हृदय से अपराध स्वीकार करके क्षमायाचना करता है वैसे ही यहाँ गुरु के समक्ष अपने द्वारा की गई हिंसा का तीव्र संताप व गद्गद हृदय से स्वीकार करने व 'मिच्छामि दुक्कडं' करना है; इसके लिए यह सूत्र है।
इस सूत्र का सारांश यह है कि हमारा कामकाज आना जाना, बोलना चालना, विचार करना, किसी भी अंश में ऐसा न होना चाहिए कि जिससे किसी भी सूक्ष्म या बादर प्राणी को किसी भी प्रकार मन, वचन, काया से दुःख पहुँचे। हमारे जीवन का दैनिक व्यवहार और विचार ऐसा न हो जिससे किसी भी जीव को पीडा या त्रास हो। किन्तु सांसारिक जीवन ही कुछ इस प्रकार का है कि इसमें ऐसा पाप हो जाया करता है। साधु--जीवन में भी प्रमादवश सूक्ष्म जीवों की विराधना हो जाती है। साध्वाचार के भंग से भी पाप का प्रादुर्भाव होता है। इस सूत्र द्वारा उसकी शुद्धि करने के पश्चात् ही अन्य धर्म-क्रिया कर सकते हैं। अत: इस सूत्र का प्रयोग सामायिक, प्रतिक्रमण, चैत्यवंदन आदि क्रियाओं के प्रारंभ में किया जाता है।
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