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भावार्थ
हे गुरु भगवन्! आपकी इच्छा से मुझे गमनागमन की क्रिया में (अथवा साध्वाचार के उल्लंघन में) हो गयी विराधना से प्रतिक्रमण करने की (पीछे लौटने की आज्ञा प्रदान करो।
गुरुजी कहते हैं - प्रतिक्रमण करो। शिष्य उत्तर देता है - मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ और अब मैं गमनागमन विषयक विराधना का प्रतिक्रमण शुद्ध आन्तरिक भाव से प्रारंभ करता हूँ ।
मार्ग पर जाते अथवा आते हुए जानते या अजानते कोई त्रसजीव, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), बीज ( सजीव धान्य), हरि वनस्पति, ओस का पानी, चींटी का बिल, शैवाल, कच्चा पानी, मिट्टी अथवा मकडी का जाला आदि मेरे द्वारा दबाये गए. इनमें यदि किसी जीव की विराधना की हो, उदाहरणरूप जीवों में किसी एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अथवा पंचेन्द्रिय जीव को किसी प्रकार पीड़ा की हो, जैसे, -- किसी जीव को मैंने ठोकर लगाई हो अथवा कुचला हो, धूल से ढका हो, परस्पर रगड़ा हो, घिसा हो, समूह में इकट्ठा किया हो, उसे दुःख हो इस तरह से छुआ हो, भयभीत किया हो, अंगभंग किया हो, मृतसमान किया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर धकेल दिया हो, प्राणहीन किया हो, इत्यादि बातों में हुआ मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो ।
सूत्र - परिचय
इस सूत्र
में गमनागमन आदि में हुई जीवों की विराधना
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