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________________ की वाड यानी मर्यादा द्वारा ब्रह्मचर्य के पालक, चार प्रकार के कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) से मुक्त, इस प्रकार १८ गुणोंवाले, अहिंसादि पांच महावतों का पालन करनेवाले, (ज्ञानाचार आदि) पांच प्रकार के आचार के पालन में समर्थ, (ईर्यासमिति आदि) पांच समिति एवं (मनोगुप्ति आदि) तीन गुप्ति के धारक, - इस प्रकार कुल ३६ गुणों से युक्त मेरे गुरु हैं। सूत्र - परिचय सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, उपधान, आदि, ये धर्मक्रियायें यानी धर्मानुष्ठान हैं। इन्हें गुरु की उपस्थिति में, गुरु की आज्ञा से, तथा गुरु के प्रति विनयभाव को रखते हुए ही करना चाहिये। गुरु की अनुपस्थिति में धर्म-क्रियाओं को छोड़ना नहीं चाहिये, क्योंकि आत्महित के लिए येही समर्थ होती है। इसीलिए शास्त्रकार, 'गुरुविरहम्मी गुरुठवणा' इस सूत्र द्वारा, गुरु भगवन्तो का योग न मिलने पर, ज्ञान-दर्शनचारित्र के किसी भी उपकरण में गुरु की स्थापना करने का फरमान करते हैं। ऐसा करके यह समझना चाहिए की अपनी दृष्टि सन्मुख स्थापना-गुरु साक्षात् गुरु रूप विराजमान है। उनका आदेश प्राप्त कर तथा उचित विनयभाव रखकर धर्मानुष्ठान यानी धर्मक्रिया करनी चाहिए। एक चौकी पर धर्मपुस्तक अथवा नवकारवाली रखकर उसमें गुरु को आमंत्रण (गुरु के आगमन-स्थापन) करने के उद्देश्य से, उसके सन्मुख दांया हाथ रख करके नवकार मंत्र तथा पंचिंदिय सूत्र बोलने चाहिए। इससे गुरु की स्थापना होती है । क्योंकि इस सूत्र का उच्चारण गुरु-स्थापना के निमित्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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