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________________ गति नाम कर्म जिस कर्मके उदयसें जीव नरक १ तिर्यंच २ मनुष्य ३ देवताकी गति पर्याय पामें, नरकादि नाम कहनेमें आवे, और जीव मरे तब जिस गतिका गतिनामकर्म, आयुकर्म मुख्यपणे और गतिनाम कर्म सहचारी होवे है, तब जीवकों आकर्षण करके ले जाते है, तब वो जीव तिस गति नाम और आयु कर्मके वश हुआ था जहां उत्पन्न होना होवे तिस स्थान में पहुंचे है, जैसे दोरेवाली सूइकों चमक पाषाण आकर्षण कर्ता है और सूइ चमक पाषाणकी तर्फ जाती है, दोराभी सूइके साथही जाता है, इस तरे नरकादि गतियोंका स्थान चमक पाषाण समान है, आयु कर्म और गतिनाम कर्म लोहेकी सूइ समान है, और जीव दोरे समान बीचमें पोया हुआ है, इस वास्ते परभवमें जीवकों आयु और गतिनाम कर्म ले जाते है, जैसा २ गतिनाम कर्मका जीवां ने बंध करा है, शुभ वा अशुभ तैसी गतिमें जीव तिस कर्मके उदयसें जा रहता है, इस वास्ते जो अज्ञानीयोने कल्पना कर रखी है कि पापी जीवकों यम और धर्मी जीवकों स्वर्गके दूत मरा पीछे ले जाते है तथा जबराइल फिरस्ता जीवांकों ले जाता है, सो सर्व मिथ्या कल्पना है, क्योंकि जब यम और स्वर्गीय दूत फिरस्ते मरते होगे, तब तिनकों कौन ले जाता होवेगा, और जीवतो जगतमें एक साथ अनंते मरते और जन्मते, तिन सबके लेजाने वास्ते इतने यम कहांसे आते होवेंगे, और इतने फिरस्ते कहां रहते होवेगे १ और जीव इस स्थूल शरीरसें निकला पीछे किसीके भी हाथमें नही आता है, इस वास्ते पूर्वोक्त कल्पना जिनीने सर्वज्ञका शास्त्र नही सुना है तिन अज्ञानीयोंने करी है. इस वास्ते मुख्य आयुकर्म और गतिनाम कर्मके उदयसेंही जीव परभवमें जाता है. इति गतिनाम कर्म ४ अथ जातिनाम कर्मका स्वरूप लिखते है, जिसके उदयसें जीव पृथ्वी, पाणी, अग्नि, पवन, वनस्पतिरूप एकेंद्रिय, स्पर्शेन्द्रियवाले जीव उत्पन्न होते है, सो एकेंद्रिय जातिनाम कर्म १ जिसके उदयसें दोइंद्रियवाले कृम्यादिपणें उत्पन्न होवे, सो द्वींद्रिय जातिनाम कर्म २ एवं तीनेंद्रि कीदी आदि, चतुरिंद्रिय उदरादि, पंचेंद्रिय नरक पंचेंद्रिय पशु गोमहिष्यादि मनुष्य देवतापणे उत्पन्न होवे, सो पंचेंद्रिय जातिनाम कर्म. एवं सर्व ८ उदारिक शरीर अर्थात् एकेंद्रिय द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय, तिर्यंच मनुष्यके शरीर पावनेकी तथा उदारीक शरीरपणे परिणामकी शक्ति, तिसका नाम उदारिक शरीर नाम कर्म १० जिसकी शक्तिसें नारकी देवता का शरीर पावे, जिससे मन इच्छित रूप बणावे तथा वैक्रिय शरीरपणे ८१ Jain Education International 1 胖胖胖胖 ००००००० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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